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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० ४.-- ज्ञान बादी किस विषय का शास्त्रार्थ करना चाहता है मेरे में कितना ज्ञान है। यह समवाद है या विताड़ा बाद है। इत्यादि विचार पूर्वक ही शास्त्रार्थ करे । ८--संग्रह सम्प्रदाय-जिसः चार भेद १-क्षेत्रसंग्रह-वृद्ध ग्लानी रोगी तपस्वी आदि साधुषों के लिये ऐसे क्षेत्र ध्यानमें रखे कि जहाँ स्थिरवास करने से साधुओं की संयमयात्रा सुख पूर्वक व्यतित हो और गृहस्थों को भी लाभ मिले । कारण आचार्य गच्छ के नायक होते हैं अतः साधुओं को योग्य क्षेत्र में भेजें । २-शय्या संस्तार संग्रह-आचार्यश्री के दर्शनार्थ दूरदूर से आने वाले मुनियों के लिये मकान पाट पा ले घास तृण वगैरह ध्यान में रखे कि आगुन्तुओं का स्वागत करने में तकलीफ उठानी नहीं पड़े । अतः पहिले से ही इस प्रकार काध्यान रखना श्राचार्य का कर्तव्य है। ३-ज्ञानसंग्रह-नया नया ज्ञान का संग्रह करे क्योकि शासनका आधार ज्ञान पर ही रहता है । ४-शिष्यसंग्रह-विनयशील विद्वान शासन या उद्योत करने वारे शिष्यों का संग्रह करें इत्यादि आचार्यपद के विषय में सूरिजी ने बहुत ही विस्तार से कहा कि सुयोग्याचार्य होने से ही शासन की प्रभावना एवं धर्म का उद्योत होता है तीर्थङ्कर भगवान् अपने शासन की आदि में गणधर स्थापन करते हैं वे भी आचार्य ही थे तीर्थङ्करों के मोक्षपधार जाने के पश्चात् शासन आचार्य ही चलाते हैं । गच्छ नायक आचार्य एक ही होना चाहिये कि संघ का संगठन बल बना रहै हाँ किसी दूर प्रान्तों में विहार काना हो तो उपाचार्य बनासकते है पर गच्छ नायक आवार्य तो एक ही होना चाहिये । भगवान् पाश नाथ की परम्परा में आज पर्यन्त एक ही आचार्य होता आया है हाँ आचार्यरत्नप्रभसूरि के सा:य आपके गुरुभाई कनकप्रभसूरि को कोरंट संघ ने आचार्य बना दिया पर उस समय जैन श्रमों में अहंपद का जन्म नहीं हुआ था कि रत्नप्रभसूरि ने सुना कि कोरंट संघने कनकप्रभ को आचार्य बनादिया तब वे स्वयं चलकर कोरंटपुर गये परन्तु कनक भसूरि भी इतने विनय वान् थे कि अपना आचार्य पद रत्नप्रभसूरि के चरणों में रख कर कहा कि मैं तो आपका अनुचर हूँ मारे शिरपरनायक तो श्राप ही आनार्य हैं अहाहः यह कैस विनय विवेक और श्रेष्टाचार । पर समप्रभसूरि की उदारता भी कम नहीं थी वे अपने हाथों से कनकप्रभ कों प्राचार्य बना कर कोरंट संघ का एवं कनकः भ का मान रखा यही कारण है कि जिस बात को आज आठसौ से भी अधिक वर्ष होगया कि केवल गच्छ नाम दो कहलाया जाता है। पर वास्तव में वे एकही हैं दोनों गच्छ के प्राचार्य एवं श्रमण संघ मिलमुल कर रहते हैं एवं शासन की सेवा और धर्म प्रचार करते हैं मरुधर में इतनी सभाएँ हुई पर एक भी सभा का इतिहास यह नहीं कहता है कि जहाँ कोरंट गच्छ के आचार्य एवं मुनिवर्ग सभामें आकर शामिल नहीं हुए हो ? सावुअा के बारह संभोग दोनोंगच्छ के साधुओं में परम्परा सं चला आरहा है । यदि भविष्य में भी एक ही नहीं पर सब गच्छों के नायक इसी प्रकार चलता रहेगा तो वे अपनी आत्मा के साथ अनेक भव्य जीवों का कल्याण करने में सफलता प्राप्त कर सकेगा । इत्यादि सूरिजी महाराज का व्याख्यान श्रोताओं को बड़ाही हृदयग्राही हुआ। एक समय देवी सच्चायिका सूरिजी को वन्दन करने के लिये आई थी सूरिजी ने कहा देवीजी अव मेरी वृद्धावस्था है आयुष्य का विश्वास नहीं है मैं मेरे पट्टपर आचार्य बनाना चाहता हूँ। मेरे साधुनों मैं आचार्यपद की योग्यता] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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