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वि० सं० ४२४-४४० वर्ष
[ भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उपाध्याय सोमप्रभ मेरे पद के योग्य हैं इसमें आपकी क्या सम्मति है । देवी ने कहा प्रभो आपका श्रायुष्य तो दो मास और ११ दिन का शेष रहा है और उपाध्याय सोमप्रभ आपके पट्ट के सर्वथा योग्य है आप यहां पर ही इनको श्राचार्य पद प्रदान कर के उपकेशपुर को ही कृतार्थ बनावें । तथा एक और भी प्रार्थना है कि अब काल दिन दिन गीरता आरहा अब आत्मभाव । एवं वैराग्य की अपेक्षा जाति कुल की लज्जा से ही धर्म चलेगा। आचार्य रत्नप्रभसरि ने अपने पूर्वी एवं श्रुत ज्ञान से भविष्य का जान कर महानलाभ महाजन संघ स्थापन करके जैनधर्म को स्थायी बना दिया है इसी प्रकार इस समुदाय में आचार्य भी उपकेश वंश में जन्म लेने वाले सुयोग्य मुनिकोंही बनाया जाय और ऐसा नियम कर लिया जाय तो भविष्य में शासन का अच्छा हित होगा । कारण इस वंश में जन्मे हुए के शुरु से जैन धर्म के संस्कार होते हैं अतः वे श्रात्म भाव से त्याग वैराग्य से एवं जाति कुल की मर्याद से भी लिया हुआ भारकों श्राखिर तक निर्वाह सकेगा इस लिये मेरी तो श्राप से यही प्रार्थना है कि आप ऐसा नियम बनादें कि इस गादी पर उपकेशवंश में जन्मा हुआ सयोग्य मुनि ही आचार्य बनसकेगा इत्यादि । सूरिजी ने देवी के बचन को तथाऽस्तु' कह कर स्वीकार कर लिया बाद देवी सूरिजी को बन्दनकर चली गई।
सुबह श्राचर्यश्री ने श्रीसंघ को सूचीत कर दिया कि मैं मेरे पट्ट पर उपाध्याय सोमप्रभ कों प्राचार्य बनाना निश्चय कर लिया है और देवी की सम्मति से यह भी निर्णय कर लिया है कि आचार्यरत्नप्रभसूरि की पट्ट परम्परा मैं आचार्य उपकेशवंश में जन्मा हुआ सुयोग्य मुनिको ही बनाया जायगा और इसमें प्राग्वट एवं श्रीमाल वंशकाभी समावेश हो सकेगा। श्री संघ ने सूरिजी महाराज का हुक्म को शिरोधार्य करलिया । पर श्रीसंघ ने प्रार्थना की कि प्रभो ! श्रापकी वृद्धावस्था है अतः अब आपश्री यहीं पर स्थिरवास कर विराजे जिस शुभमुहूर्त में आप उपाध्यायजी को आचार्यपदार्पण करेंगे श्री संघ अपना कर्तव्य अदा करने को तैयार है सूरिजी ने कहाकि अब मेरा श्रायुष्य केवल दो मास ग्यारह दिन का रहा है अतः मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी का शुभ दिन में मैं उ०सोमप्रभ को सूरि पददेने का निश्चय कर लिया है यह सुनकर श्रीसंघ को बड़ा ही रंजहुआ पर आयुष्य के सामने किस की क्या चल सकती है । वहां का आदित्यनाग गौत्रीय शाह वरदत्तने आचार्य पद के लिये महोत्सव करना स्वीकार कर लिया और नजदीक एवं दूर दूर श्रीसंघ को आमन्त्रण भेज दिया बहुत से ग्राम नगरों के संघ आये जिन मन्दिरों में अष्टान्हि का महोत्सव प्रारम्भ होगया और ठीक समय पर विधि विधान के साथ चतुर्विध श्रीसंघ के समीक्ष भगवान महावीर के मन्दिर मैं सूरिजी के करकमलों से उपाध्याय सोमप्रभ को आचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया और गच्छ का सर्व अधिकार नूतनाचार्य ककसूर के सुपुर्द कर दिया।
शाह वरदत्त ने पूजा प्रभावना स्वामि वत्सल्य और आया हुआ संघ को पहरामणि दी जिसमें अपने नी लक्ष द्रव्य व्यव कर कल्याण कारी कर्मोपार्जन किया
आचार्यश्री यक्षदेवसूरि लुणाद्री पहाड़ी पर अन्तिम सलेखना करने में सलग्न होगये जब परावर एक मास शेष आयुष्य रहा तब श्रीसघ को एकत्र कर क्षमापना पूर्वक आप अनसनव्रत धारण कर लिया और तीस दिन समाधि में बिताया अन्त में आप पांच परमेष्टी का स्मरण पूर्वक स्वर्ग पधार गये । जिससे श्रीसंध में सर्वत्र शोक के बादल लागये पर इस के लिये उनके पास इलाज ही क्या था उन्होंने निरानन्दता से पूज्याचार्यदेव के शरीर का बड़े ही समारोह से अग्नि संस्कार किया उस समय आकाश से खूब केसर बरसी ८४४
[ आचार्य और देवी सच्चायिका
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