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________________ वि० सं० ६०१-६३१] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आया। सूरीश्वरजी की सेवा में उपकेशपुर पधारने की अत्यन्त आग्रहपूर्ण प्रार्थना करने लगा पर आखिर माण्डव्यपुर का श्रीसंघ ही भाग्यशाली रहा । सूरिजी ने माण्डव्यपुर श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार कर, माण्डव्यपुर में चातुर्मास कर दिया। उप केशपुराधीश रावगोपाल ने माण्डव्य पुर के श्रीसंघ और विशेष करके राव शोभा को धन्यबाद दिया । सब के समक्ष अपने हृदय के शुभ उद्गार प्रगट किये कि माण्डव्यपुर श्रीसंघ अत्यन्त पुण्यशाली है, यही कारण है कि सकल मनोकामना को पूर्ण करने सदृश कल्पवृक्ष समान, अध्यात्म योगी प्राचार्यश्री ने माण्डव्यपुर श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार कर यहां पर च तुर्मास करने का निश्चय कर लिया है । इसके प्रत्युत्तर में आचार्यश्री का कृपापूर्ण उपकार मानते हुए सहर्ष हृदय से राव शोभा ने कहा कि-राजन् ! प्राचार्य देवके साथ ही साथ श्रापश्रीमानों की परम कृपा का ही यह मधुर फल है। इस प्रकार से थोड़े समय तक स्नेहवर्धक वार्तालाप होता रहा । अह उस समय का जमाना कैसी धर्मभावना वाला था। पारस्परिक स्नेह का कैसा आदर्श प्रादर्श था ? वे लोग अखूट लक्ष्मी के स्वामी होने पर भी कितनी निरभिमानता एवं भद्रिक परिणामी थे । वे पातक से भीरू एवं धर्म के परमश्रद्धा सम्पन्न नियम निष्ठ श्रावक थे। बस, धर्मभावना के अधिक्य से ही उस समय का समाज धन, जन, एवं कौटुम्बिक सुखों से सुखी था । आत्म कल्याण के निवृत्तिमय मार्ग का अाराधक था। माण्डव्यपुर में सूरिजी के चातुर्मास होने से श्राध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवल क्रान्ति मची। सबके हृदय, धर्म भावनाओं से ओतप्रोत होगये माण्डव्यपुर के अष्टि गौत्रीय रोव शोभा ने सवालक्ष्य द्रव्य व्यय कर श्री भगवतीजी सूत्र का महोत्सव किया श्रीगौतमस्वामी द्वारा पूछे गये प्रत्येक प्रश्न की सुवर्ण मुद्रिका आदि से पूजा की । उस द्रव्य से जैनागम लिखवा कर स्थान २ पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये एवं जैनसाहित्य को स्थिर बनाया इस तरह राव शोभा इस स्वर्णोपम अवसर का तन, मन एवं धन से लाभ लेता रहा। श्रीआचार्यदेव की वृद्धावस्था जन्य अशक्तता के कारण कभी २ व्याख्यान उपाध्याय पद विभूषित मुनिश्री ज्ञानकलशजी फरमाया करते थे। आपश्री की व्याख्यान शैली भी अत्यन्त रुचिकर एवं चित्ताकर्षक थी। जनता जल तृषित व्यक्ति की तरह आप श्री के मुखारविंद से शास्त्रीय पीयूष धारा का श्रमरहित पान किया करती थी। इधर श्री राव शोभा की वय५६ वर्य की हो चुकी थी। इस समय आपके ११(ग्यारह) पुत्र और पौत्रादि का, विशाल परिवार था । आपकी गनती कोट्याधीशों में की जाती थी। श्रापके ज्येष्ष्ठ पुत्र का नाम धन्नाथा । आप जैसे राज्य संचालन करने में नीति दक्ष थे वैसे ही व्यापार निपुण भी थे तथा शान्त, उदारता गम्भीरता, शूरवीरता श्रादि गुणों से भी बलिष्ठ थे । राजकीय सत्ता के उच्चाधिकारी पद पर आसीन होते हुए भी अपने निजी गुणों से अमर ख्याति प्राप्त करली थी। माण्डव्यपुर निवासियों को आपके शान्तिपूर्ण शासन संचालन बृत्ति से पूर्ण संतोष था । आपश्री की धर्म पत्नी का देहावसान होने के पश्चात आप एक दम संसार से विरक्त हो गये थे । इतने में ही पुण्य की प्रबलता से किंवा पूर्व कृत शुभ पुन्य के साञ्चित होने से, भवजलनिधीतारक पोत रूप प्राचार्यदेव का भी संयोग होगया । अतः वैराग्योत्पादक व्याख्यान श्रवण से हृदय में अङ्कर, अङ्कुरित आचार्य देव के उपदेश रूप जाल से तीव्र गति पूर्वक वृद्धिंगत होने लगा। ऐसे तो आपकी आत्मकल्याण की कई समय से भावना थी ही किन्तु आचार्यश्री के संयोग ने उन भावनाओं को एक दम ताजी एवं दृढ़ बना दी। माडव्यपुर और उपकेशपुर १०३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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