________________
प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १००१-१०३१
प्रसङ्गानुसार एक दिन सूरीश्वरजी की सेवा में श्राकर राव शोभा ने अर्जकी कि-भगवान् ! अष मुझे ऐसा मार्ग बदलावें कि जिससे, शीघ्र ही आत्म कल्याण हो जाय । सूरिजीने कहा-शोभा ! कल्याण का एक दम निर्विघ्न, सुखदायक मार्ग संसार का त्याग करना ही है कारण, संसारिक अवस्था में रहते हुए मनुष्य को धन कुटुम्ब का सर्वथा मोह छूटना अशक्य है । वह अनिच्छा पूर्वक भी एक बार कौटाम्बिक पाश में फंस जाता है तो पुनः उससे मुक्त होना महादुष्कर सा ज्ञात हो जाता है । फिर तुम्हरा तो यह आत्म. कल्याण का ही समय है तुमने सांसारिक करने योग्य सर्व कार्यों को शांतिपूर्वक कर लिये हैं अतः निवृत्ति मार्ग में विलम्ब करना तुम जैसे मेधावी के लिये जरा विचारणीय है।
__शोभा-गुरुदेव ! मेरे पास करोड़ो रुपयों का द्रव्य है । यदि उसमें से आधा द्रव्य सुकृत में लगाएं तो आत्मकल्याण नहीं हो सकेगा ?
सूरिजी-शोभा ! सप्तक्षेत्रों में द्रव्य का सदुपयोग कर अनंत पुण्योपार्जन करना श्रात्मकल्याण के मार्ग का एक अंग अवश्य है पर तुम जिस आत्मकल्याण को चाहते हो वह उससे बहुत दूर है । कारण, द्रव्य का शुभ कार्यों में सदुपयोग करना भिन्न बात है और आत्मकल्याण का एकान्त निवृत्तिमय मार्ग अद्वीकार करना एक दूसरी बात है। द्रव्य व्यय करने में तो कई प्रकार की आकांक्षाएं एवं भावनाएं होती है किन्तु निवृत्ति मार्ग के अनुयायी बनने में एक मात्र आत्मोन्नति का ही उच्चतम ध्येय रहता है ।। प्रवृत्ति कायों से (द्रव्य व्यय वगैरह से ) शुभ कर्म सञ्चय होता है जो भविष्य के कल्याण के लिये सहायक बन जाता है पर प्रवृत्ति मार्ग कारण है तब, निवृत्ति मार्ग कार्य है । प्रवृत्ति से आगे बढ़ कर निवृत्ति मार्ग को स्वीकार करना ही पड़ता है । शोभा ! चक्रवर्तियों के तो हीरे, पन्ने माणिक, मोती, सोने, चांदी की खाने थी पर आत्मकल्याण के लिये तो उनको भी उक्त सर्व वस्तुओं का त्याग कर बिशुद्ध चरित्र का शरण लेना पड़ा। यदि वे चाहते तो अपने पास स्थित अक्षय धन राशि का शास्त्रीय सप्तक्षेत्रों में सदुपयोग कर पुण्य राशि का संचय कर सकते थे किन्तु, एकान्त आत्मकल्याण की परम भावना वाले उन व्यक्तियों ने इस प्रवृत्ति कार्य के साथ ही साथ निवृत्ति कार्य को आत्म कल्याण के लिये विशेषावश्यक सगम स्वीकृत किया और उसी भव में मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी बने । अतः कल्याण के लिये निवृत्ति सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । चाहे आज इस मव में या परभव में प्रात्मकल्याण की भावना वाले को दीक्षा अङ्गीकार करनी होगी । पर यह सोच लेना चाहिये कि पूर्व जन्मोपार्जित पुण्यराशि के अक्षय प्रभाव से जो आज हमको अनुकूल साधन मिले हैं वे परभव में मिल सकेंगे या नहीं ? परभव की श्राशा से हस्तागत स्वर्णावसर को त्याग देना बडी भारी भूल है । अरे शोभा ! जरा मानव भव की दुर्लभता एवं सांसारिक सुरवों की अस्थिरता का तो विचार करो
,, पूर्वजन्म कृत सुकृतं सहस्त्रों जब होते हैं एकीतीर !
पाता है तब मनुझ मनोहर मानव का यह रुचिर शरीर ॥,, यही नहीं शास्त्रकारो ने फरमाया है
चत्तारि परमङ्गाणि दुल्लहाणि य जन्तुणो ।
माणुस सुइ सद्धा संजमम्भिय वीरियं ॥, शाह शोभा का सद्विचार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org