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वि० सं० ११२८-११७४]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
होती नजर भाई हिंसा के पक्ष में पृथ्वीपुर का राव सांखला अग्रेश्वर था उसकी समझ में आया कि हिंसा कभी धर्म का कारण हो ही नहीं सकता है दूसरा जैन निर्ग्रन्थों का आचार विचार परोपकार की तीब्र भावना
और उनका निस्पृहता ने रावजी पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा । रावजी ने सूरिजी से आत्मकल्याणार्थ धर्म स्वरूप पूछा उत्तर में सूरिजी ने अहिंसा परमोधर्मः का विस्तृत विवरण के साथ स्वरूप बतलाया और साथ में देवग रु धर्म का भी ठीक २ विवेचन किया और कहा रावजी आत्म कल्याण के लिये सबसे पहले तो देवगुरु पर श्रद्धा होनी चाहिये तब जाकर धर्म के ऊपर निश्चय परिणाम स्थिर हो सकता है। अब आप स्वयं प्रज्ञावान हैं विचार करलो कि कौन से देवगुरूजी की उपासना करें कि जिससे आत्मा का कल्याण हो सके ? रावजी ने ठीक समझ लिया कि सिवाय परोपकार के सूरिजी ने अभी तक तो कोई भी बात स्वार्थ की नहीं कहीं है इनका प्राचार तो वहाँ तक है कि इनके लिये बनाई गई रसोई या इनके लिए सामान लेकर आवे
। इनके काम की नहीं। इससे अधिक त्याग क्या हो सकता है। इनकी तपश्चर्या भी बड़ी कठोर है कि अन्य किसी के मत में देखने में नहीं आती है इत्यादि विचार कर रावजी अपने सकुटुम्ब एवं अपने बहुत से साथियों के साथ सूरिजी के चरण कमलों में श्रद्धापूर्वक जैन धर्म को अङ्गीकार कर लिया।
राव सांखला ने अपने वहां भगवान पार्श्वनाथ का उतंग मन्दिर बनवाया जिस पर सुवर्ण कलस चढ़ा कर प्रतिष्ठा करवाई । रावजी ज्यों ज्यों धर्म कार्य में आगे बढ़ते गये त्यों त्यों उनके पूर्व संचित पूण्य भी उदय होते गये रावजी को प्रत्येक कार्य में अधिक से अधिक लाभ मिलता गया साथ में प्राचार्यों का उपदेश भी मिलता गया इधर महाजनसंघ के साथ भी रावजी का सब तरह का व्यवहार होने लगा । एक वार राव सांखला ने सूरिजी को बुला कर प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरा विचार तीर्थ यात्रा करने का है। अतः संघ निकाला जाय तो और भी हमारे हजारों भाइयों को तीर्थयात्रा का लाभ मिल सकता है। अतः आपकी इसमें क्या सम्मति है । सूरिजी ने कहा रावजी ! श्राप बड़े ही भाग्यशाली हैं, गृहस्थ का तो यह खास कर्त्तव्य ही है कि साधन सामग्री के होते हुए तीर्थयात्रा अवश्य करे और अपने साधर्मी भाइयों को भी यात्रा करावें । बस, फिर तो था ही क्या रावजी ने बड़े ही पैमाने पर संघ निकालने की तैयारियां शुरू करवा दी और सर्वत्र आमंत्रण भी भिजवा दिये। ठीक समय पर सूरिजी ने वासक्षेप के विधि विधान से राव सांखले को संघपति पदार्पण कर संघ निकाला । सर्व तीर्थों की यात्रा कर, संघ के वापिस आने पर सामीवात्सल्य कर साधर्मी भाइयों को पहरावणी देकर विसर्जन किये । उसी दिन से ही राव सांखला की सन्तान सखलेचा के नाम से प्रसिद्ध हुई और आगे चल कर उनकी जाति ही सखलेचा हो गई।
इस संखलेचा जाति का भाग्यरवि इतने प्रताप से तपने लगा कि इनकी संतान की बहुत वृद्धि हुई और व्यापारार्थ एवं राजमान से अनेक स्थानों में वटवृक्ष की तरह फैल गई। इस जाति में बहुत से दानी मानी उदार एवं नररत्न हुए हैं कि देश-समाज एवं धर्म की बड़ी सेवाएं कर अपनी उज्ज्वल कीर्ति को अमर बना दी थी इस जाति में कईयों ने कांसी पीतल के बरतनों का काम किया वे कासटिये कहलाये । कइयों ने राज के कोठार का काम किया जिससे कोठारी कहलाये। कई हाला ग्राम को छोड़ आने से हलखंडी कहलाए । कई विराट संघ निकालने से संवी कहलाए । कइयों ने राज के खजाने पर काम किया जिससे खजांची कहलाये इत्यादि । एक ही जाति की अनेक शाखाएं बन गई । जब तक मनुष्य के पुण्यों का उदय होता है, पुण्यों का ही संचय करता है देवगुरु धर्म पर अटूट श्रद्धा रखता है और मांस मदिरादि दुर्व्यसन छुड़ाने वाले के उपकार को सदेव याद करता है और उसके लिये प्रत्युपकार करता रहता है वहां तक उसके पुण्य बढ़ते ही रहते हैं। अहा ! हा !! उस समय एक सखलेचा ही क्यों पर इस महाजन संघ की जहां देखो वहां चढ़ता सितारा दीख पड़ता था।
जब से लोग अपने उपकारी पुरुषों का उपकार भूल कर कृतघ्नीपना का वन पाप शिर पर उठाना १४६६
संखलेचा जाति की शाखाएँ
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