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________________ वि० पू० ५२० - ५५८ ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाहन चक्रवर्ति महाराजा खारबेल का एक विस्तृत शिलालेख का पता लगा जिसको एक शताब्दि के पूरे परिश्रम द्वारा पढ़ा गया तो मालूम हुआ कि कलिंगपति खारवेल राजा जैन धर्मोपासक एवं प्रचारक था साथ में यह भी निर्णय होगया कि मगद के नन्दवंशी राजा भी जैन थे क्योंकि शिलालेख में ऐसा भी उल्लेख है। कि मगद का राजा नन्द कलिंग देश से जिन मूर्ति लेगया था वह मूर्ति पुनः राजा खारवेल कलिंग में ले श्राया था आगे उसी पहाड़ी की एक गुफा में एक पत्थर पर भगवान् पार्श्वनाथ का चरित्र भी खुदा हुआ मिला जिससे यह भी सिद्ध होगया कि भ० महावीर के पूरागामी भ० पार्श्वनाथ हुए थे अतः जैन धर्म बौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन एवं स्वतंत्र धर्म है । आगे चल कर हम राजाओं की ओर देखते हैं कि ई० सं० पूर्व की छठी शताब्दि से लगाकर ई० सं० की तीसरी चतुर्थी शताब्दि तक थोड़े से अपवाद को छोड़ कर जितने राजा हुए वे सब सत्र जैन धर्मों ही थे केवल अशोक बौद्ध और शुंगवंशी पुष्पमित्रादि वेदान्ती थे जब राजा जैन धर्मी थे तब उनके बनाये स्मारक एवं सिक्के दूसरे धर्म के कैसे हो सकते हैं ? विद्वानों का तो यहां तक मत है कि क्या मन्दिर मूर्तियाँ, क्या स्तूप - स्तम्भ और क्या सिक्के इन सब की शुरूआत जैनों की ओर से ही हुई है दूसरे धर्म वालों ने तो जैनों की देखा-देखी ही किया है । अतः उपलब्ध सिक्काओं में अधिकांश सिक्के जैन धर्मोपासक राजाओं के बनाये हुए हैं और इस बात की साबूती उन उन सिक्काओं पर के चिन्ह ही दे रहे हैं। पाठकों की जानकारी के लिये कतिपय सिक्कों का ब्लॉक यहाँ पर देदिये जाते हैं जिससे जिज्ञासु पाठक ठीक निर्णय कर सकेगा । स्तूप - प्रकरण पिच्छले प्रकरण में हम सिकाओं के विषय में संक्षिप्त से लिख आये हैं अब इस प्रकरण में प्राचीन स्तूपों के लिये उल्लेख करेंगे । पर पहले यह कह देना ठीक होगा कि पाश्चात्य विद्वानों ने जैन साहित्य के अभाव प्राचीन सिक्काओं के निर्णय करने में भूल की थी इसी प्रकार स्तूपों के विषय भी वे सर्वथा बच नहीं गये हैं और इस भूल का कारण हमें सिक्का प्रकरण में विस्तार से बतला दिया है अतः यहाँ पर पीष्टपेषण करने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी जमाना काम करता ही रहता है बादल कितने ही घन क्यों नहीं हो पर उसमें सूर्य छीपा नहीं रह सकता है इसी प्रकार कितनी ही कल्पना की जाय पर सत्म कदापि छीपा नहीं रह सकता है । वर्तमान की शोध खोज से जैसे श्रन्योन्य प्राचीन स्मारक उपलब्ध हुए है वैसे प्राचीन स्तूप भी मिले हैं पर पाश्चात्य विद्वानों ने उन सब स्तूपों को बौद्ध धर्म के ठहरा दिये हैं किन्तु वास्तव में अधिक स्तूप जैन धर्म के ही थे । हाँ बोद्ध धर्मियों ने भी कई स्तूपों का निर्माण करवाया था पर पाश्चात्य विद्वानों के पास जैन साहित्य का अभाव होने से उन्होंने जितने स्तूप उनकी दृष्टि में आये उन सब को ही बौद्ध धर्म के छाने लिख दिये। यह एक जैनों के लिये बड़ा से बड़ा अन्याय कहा जा सकता है। फिर भी हम इतना कह सकते हैं कि उन विद्वानों ने यह अन्याय जानबूक एवं पक्षपात से नहीं किया था पर जैन धर्म के विषय जितने साधन श्राज उनको मिले हैं उतने उस समय नहीं मिले थे यही कारण है कि श्राज कई विद्वानों ने उसमें हुई भूल का पश्चाताप करते हैं जो जो स्तुप जैनों के हैं उनको स्वीकार भी करते हैं। पाठकों की ९९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only स्तूप - प्रकरण www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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