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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ९२०-९५८
पर थूकने वाले का थूक उसी के मुंह पर गिरता है; बुरा करने वाले का ही बुरा होता है । जो दूसरों के लिये कूप खोदता है उसके लिये खाई अपने आप तैय्यार मिलती है ।
जब राजा के पुत्र हुआ तो वराहमिहर ने नवजात शिशु की जन्म-पत्रिका बना कर उसका श्रायुष्य सौ वर्ष का बतलाया इससे राजा को बहुत ही प्रसन्नता हुई । इधर राजा के पुत्र होने से नागरिक लोग भेंट लेकर राजा के पास गये; ब्राह्मणादि आशीर्वाद देने गये पर आर्य भद्रबाहु स्वामी जैन शास्त्र के नियमानुसार कहीं पर भी नहीं गये। वराहमिहर तो इर्ष्या के कारण पहले से ही छिद्रान्वेषण कर रहा था अतः उस को यह अच्छा मौका हाथ लग गया। उसने एकान्त में राजा को विशेष भ्रम में डालते हुए कहा-राजन् । श्राप श्री के पुत्र जन्मोत्सव की सब नागरिकों को खुशी है पर एक जैन साधु भद्रबाहुस्वामी को प्रसन्नता नहीं है । वह आप के नगर में रहता हुश्रा भी अभिमान के वश शुभाशीर्वाद देने के लिये राज सभा में नहीं आया। राजा ने भी वराहमिहिर की बात सुनली पर कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया। जब यह बात क्रमशः श्रावकों के द्वारा भद्रबाहु स्वामी को ज्ञात हुई तो आर्य भद्रबाहु ने कहा-राजकुमार का आयुष्य सात दिन का है । सातवें दिन वह बिल्ली ( मंजारी) से मर जायगा। इसलिये मैं राजा के पास नहीं गया। श्रावकों ने इस बात को भी राजा के कानों तक पहुँचा दी अतः राजा को इस विषय की बहुत ही चिन्ता होने लगी। राजा ने कुमार को सुरक्षित रखने के लिये सब मार्जारों को शहर से बाहिर कर दिया और राजकुमार को ऐसे सुरक्षित मकान में रख दिया कि मंजारी आ ही नहीं सके। मकान के बाहिर पहिरेदारों को बैठा दिये जिससे मंजारी के आने का किञ्चिन्मात्र भी भय नहीं रहा । पर भावी प्रबल है; ज्ञानियों का निमित्त कभी झूठा नहीं होता अतः भद्रबाहु स्वामी के कथनानुसार ही सातवें दिन दरवाजे के किवाड़ की अर्गल नूतन राजकुमार के मस्तक पर पड़ी और वह तत्काल मर गया। इस पर वराहमिहर ने कहा-मेरी बात सच्ची नहीं है पर भद्रबाहु की बात भी तो सच्ची नहीं है कारण उसने भी कहा था कि कुवर बिलाड़ी ( मंजारी) के योग से मरेगा-पर ऐसा तो हुआ नहीं। तब भद्रबाहु ने कहा-जिस लकड़ी के योग से कुवर की मृत्यु हुई है उस पर बिलाड़ी का मुंह खुदा हुआ है देख कर निर्णय कर लीजिये। बस, भद्रबाहु स्वामी का कहना सत्य होगया । बेचारा वराहमिहिर लज्जित हो वहां से चला गया । बाद में तापस हो, कठोर तपश्चर्या करके नियाणे सहित मर कर वराहमिहर व्यन्तर देव हुआ पर संस्कार तो भवान्तर में भी साथ ही चलता है अतः अपने दुष्ट स्वभावानुसार व्यन्तर देव के रूप में भी वराह मिहर ने जैन संघ पर द्वेष कर सर्वत्र मरकी का रोग फैला दिया । संघ ने जाकर भद्रबाहु स्वामी से प्रार्थना की तो श्राचार्य श्री ने रोग निवारणार्थ "उवसग्गहर" छ गाथा (कहीं पर सात गाथा भी लिखी है) का एक स्तोत्र बनाया जिसको पढ़ने से सब उपद्रव शान्त हो गया । पर थोड़े समय के पश्चात तो जन समुदाय ने उसका दुरुप-योग करना प्रारम्भ कर दिया । जब किसी को छोटा बड़ा जरासा काम पड़ा-मट स्वसग्गहरं को स्मरण कर अपना काम निकालने लग गया। किसी की गाय ने दूध नहीं दिया कि पढ़ा उवसग्गहरं स्त्रोत्र । किसी को जंगल में काष्ट का भारा उठाने वाला नहीं मिला कि-पढ़ा उत्सग्गहरं स्त्रोत्र । ऐसे अनेक काम श्री धरणेन्द्र देवता से करवाने लग गये । स्त्रोत्र के वास्तविक उच्चतम महत्व को स्मृति से विस्मृत कर धरणेन्द्र देवता को बुलाने में शिशु कीड़ावत् बालकौतूहल करने लग गये ।
एक समय की बात है एक स्त्री रसोई बना रही थी। इतने में उसका छोटा बच्चा टट्टी गया और - भ० महावीर की परम्परा ]
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