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वि० सं० ५२०-५५८ ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
रोने लगा । स्त्री ने सोचा-यदि इस समय मैं जाऊँगी तो रोटी जल जायगी अतः उसने बैठे बैठे ही उवसग्गहरं स्तोत्र पढ़ना प्रारम्भ किया । स्तोत्र के समाप्त होते ही धरणेन्द्र देवता अपनी प्रतिज्ञानुसार तत्काल वहाँ पर उपस्थित हुये और कहने लगे--कहो क्या काम है ! स्त्री ने कहा-क्या तुझे दीखता नहीं है-मेरा बच्चा रो रहा है। इन्द्र ने बच्चे को शौच क्रिया से निवृत्त कर उसके रोने को बन्द किया। पश्चात् धरणेन्द्र देव प्राचार्य श्री के पास में आकर निवेदन करने लगे-प्रभो ! अब तो मैं बहुत ही तंग हो चुका हूँ। इस स्तोत्र के वास्तविक महत्व का दुरुपयोग कर जन समाज जघन्य से जघन्य कार्य को करवाने के लिये इस मंत्र का स्मरण करती है अतः मैं न तो एक मिनिट ही देव भवन में ठहर सकता हूँ और न मन्त्र की महत्ता ही रहती है । मनुष्यों के तुच्छ से तुच्छ कार्य भी मुझे करने पड़ते हैं । इन्द्र की उक्त वास्तविक बात को स्मरण कर आचार्य श्री ने उवसग्गहरं स्त्रोत को जलशरण करने को कहा पर इन्द्र ने कहा-पूर्व की पांच गाथा तो रहने दीजिये सिर्फ एक छट्टी गाथा ही भण्डार कर दीजिये कि -- जिससे जरूरी काम होने पर मैं समयानुकूल उपस्थित हो सकूगा । भद्रबाह स्वामी ने भी ऐसा ही किया ।
___ इस प्रकार आर्य भद्रबाहु स्वामी जैन संसार में परम प्रभावक निमित्त वेत्ता आचार्य हुए। आपका समय विक्रम की छट्टी शताब्दी का कहा जाता है ।
इस प्रन्थ में जिन २ प्रभाविक श्राचार्यों का जीवन चरित्र लिखा गया है उनमें कई एक ऐसे भी प्राचार्य हैं कि जिन के नाम के कई श्राचार्य हो गये हैं । इस सबों के समय में पृथकता होने पर भी पूर्व लेखकों ने जो आचार्य विशेष प्रसिद्ध थे उनके नाम पर अन्याचार्यो ( तन्नाम राशियों) की घटनाएं घटित करदी हैं । जैसे:--भद्रबाहु नाम के तीन आचार्य हुए । एक वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में, दूसरे दिगम्बर मतानुसार विक्रम की दूसरी शताब्दी में, तीसरे भद्रबाहु विक्रम की छट्टी शताब्दी में हुए। किन्तु पिछले लेखकों ने इन तीनों भद्रबाहु की पृथक २ घटना को एक ही भद्रबाहु के साथ घटित करदी । इसी प्रकार पादलिप्त मानदेव, माननुङ्ग, मल्लवादी, वगैरह प्राचार्यों की विद्यमानता का समय निर्णय एक बड़ी विकट समस्या सा दृष्टि गोचर होता है । मैंने पूर्वोक्त आचार्यों के जीवन लिखते समय जिन आचार्यों का ठीक निर्णय था उनका समय तो उसी समय लिख दिया। किन्तु, जिनके विषय में विशेष शोध खोज करने की जरूरत थी, उनको छोड़ दिया था । कारण, उस समय न तो इतना समय था और न थे इतने साधन ही अतः शेष रहे हुए श्राचार्यों का समय यहां लिख दिया जाता है।
सबसे पहिले तो हम युगप्रधान प्राचार्यों का समय जो, दुषमकाल श्रमण संघादि नामक पुस्तक में लिखा मिलता है, यंत्र द्वारा लिख देते हैं । जिससे, शेष आचार्यों के समय निर्णय में सुविधा हो जाय
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[ आर्य देवऋद्धि गणि