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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्वनाथ की परम्परा का इतिहास मुनि को कब सहन होने वाली थी ? वे तो क्रोध एवं अभिमान के वश में भविष्य का भी भान भूल गये । जैन दीक्षा का त्याग कर पुनः पूर्वावस्था को प्राप्त हो अपने महान् उपकारी गुरु एवं भद्रबाहुसूरि की भलती निन्दा करने लगे एवं आचार्य श्री को द्वेष बुद्धि पूर्वक नुकसान पहुँचाने का साहस करने लगे पर आचार्य श्री की प्रतिभा के सामने उनकी निन्दा ने जन समाज पर उतना असर नहीं डाला । क्रमशः उदर पूर्त्यर्थ व सांसारिक प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिये वराहमिहिर ने एक वराही संहिता नामक ज्योतिष विषयक अन्य बनाया। इस तरह निमित्त विद्या बल से उदर पूर्ति व कुछ प्रतिष्ठा के पात्र भी बन गये । वराहमिहिर के ज्योतिष विषयक अगाध पाण्डित्य को देख कर कई लोग उनसे पूछते भट्टजी ! आपने ज्योतिष का इतना ज्ञान किस तरह से प्राप्त किया है उत्तर में भट्टजी एक ऐसी कल्पित बात कहते कि एक दिन मैं नगर के बाहिर गया। वहां भूमि पर मैंने एक कुडली को लिखी। पर नगर में आते समय उस कुण्डली को मिटाना मैं भूल गया। जब मुझे उस कुण्डली को नहीं मिटाने की स्मृति आई तो मैं तत्काल वहां गया। वहां जाते ही सिंह लग्न पर साक्षात् सिंह को खड़ा देखा । मैंने भी निडरता पूर्वक या भक्तिवश सिंह के पास जाकर सिंह के नीचे की कुण्डली को मिटा दिया। इससे प्रसन्न हो सिंह के स्वामी सूर्य ने मुझे कहा-मैं तेरी कुशलता पर बहुत ही सन्तुष्ट हूँ तेरी इच्छा के अनुसार तू कुछ भी मांग, मैं तेरे मन की अभिलाषा को पूर्ण करूंगा। मैंने कहा मुझे आपके ज्योतिष मण्डल की गति-चाल देखनी है । बस, सूर्य देव मुझे अपने ज्योतिष मंडल में ले गये । और क्रमशः सब प्रह नक्षत्रों को मुझे बतला दिये । इसलिये अब मैं तीनों कालों की बातों को हस्तामलक वत् स्पष्ट रूपेण जानता हूँ। विचारे भद्रिक लोग वराहमिहिर की बात पर विश्वास कर पूजा करने लगे। यह बात क्रमशः फैलती हुई नगर के राजा के पास भी पहुंच गई और राजा भो उसका अच्छी तरह से सत्कार करने लगा। एक समय आचार्य भद्रबाहु स्वामी फिरते हुए उसी नगर में पधार गये जहां पर वराहमिहर रहता था । श्रावक समुदाय ने बड़े ही उत्साह से नगर प्रवेश महोत्सव किया। इसको देख वराहमिहर की इर्षाग्नि पुनः भभक उठी। भद्रबाहु स्वामी को अपमानित करने की इच्छा से वह एक दिन राजा के पास जाकर कहने लगा-राजन् ! आज से पांचवें दिन पूर्व दिशा से वर्षा आवेगी। तीसरे प्रहर में वर्षा का प्रारम्भ होगा। इसके साथ मैं यहां कुण्डली करता हूँ इसमें ५२ पल का एक मन्छ भी पड़ेगा मेरे इस निमित्त को श्राप ध्यान में रखने की कृपा करें। इतना कह कर वराह मिहिर स्वस्थान चला गया जब यही बात क्रमशः आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी के कर्ण गोचर हुई तो आपने स्पष्ट फरमाया कि वराहमिहर का कथन सर्वथा सत्य नहीं है कारण, वर्षा पूर्व दिशा से नहीं पर इशान कोने से श्रावेगी। तीसरे प्रहर नहीं पर तीन मुहूर्त दिन शेष रहेगा तब बरसेगी। मच्छा ५२ पल का नहों पर ५॥ पल का गिरेगा । बस, श्रारकों ने भद्रबाहु स्वामी के भविष्य को व वराहमिहर व आपके निमित्त के पारस्परिक अन्तर को तन्नगराधीश के पास में जाकर सुना दिया । राजा ने भी परीक्षार्थ दोनों के भविष्य को अपने पास में लिखवा लिया । क्रमशः पांचवां दिन आया तो आर्य भद्रबाहु स्वामी का सब कथन यथावत् सत्य हो गया और वराहमिहर का निमित्त झूठा निकल गया । इससे नगर भर में वराहमिहर की भर्त्सना एवं निन्दा होने लगी। राजा के हृदय में भी वराहमिहर के प्रति उतना सन्मान का स्थान नहीं रहा । आर्य भद्रबाहु की जग विश्रुत सत्य ताने वराहमिहर के प्रतिष्ठा मार्ग को एक दम अवरुद्ध कर दिया। वास्तव में बात भी ठीक ही है सूर्य ९२८ [ आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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