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श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १२३७-१२१२
कर कुछ समय पर्यन्त कलिङ्ग प्रान्त के आस पास के प्रदेशों में परिभ्रमन कर धर्मोद्योत किया । तत्पश्चात् आप बिहार करके महाराष्ट्र प्रान्त में पधारे। महाराष्ट्र प्रान्त में आपके आज्ञानुवर्ती श्रमण वर्ग पहिले ही से विचरते थे । आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों ने महाराष्ट्र प्रान्तीय श्रमण मण्डली के हृदयों में नवीन एवं पूर्व लगन पैदा कर दी। वे सबके सब और भी उत्साह एवं परिश्रम पूर्वक धर्म प्रचार के कार्य में संलग्न हो गये ।
इस समय तक महाराष्ट्र प्रान्त में वैदिक धर्मानुयायियों का भी खूब जोर बढ़ गया था पर आचार्य श्री के आगमन के समाचारों ने वैदिक धर्म प्रचारकों का एकदम हतोत्साहो कर दिया। इधर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समुदाय के पारस्परिक प्रेम में भी अभूतपूर्व वृद्धि हो गई अत धर्म प्रचार का कार्य बहुत ही सुगम तया होने लगा आचार्य श्री के पधारने से उनके उत्साह में कई गुनी वृद्धि हो गई अतः वैदिक धर्म का विस्तृत प्रचार एक बार पुनः दब गया । सूरीश्वरजी के व्याख्यान की स्टाइल बहुत ही आकर्षक थी । एक बार आ चार्यश्री के व्याख्यान श्रवण करने वाला व्यक्ति दररोज बिना किसी विघ्न के व्याख्यान श्रवण की उत्कट इच्छा एवं प्रबल आकांक्षा से प्रेरित हो व्याख्यान के ठीक समय में व्याख्यान श्रवणार्थ उपस्थित होता ही था आपने अपनी प्रखर विद्वता सम्पन्न प्रतिभा का प्रभाव साधारण जनता पर ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजाओं पर भी डाला । इस समय का इतिहास बतलाता है कि राष्ट्रकूट, चोल, पाण्डच, पल्लव, चौलुक्य, कलचुरी, होयल, गग, कदंब वंशी राजा महाराजा जैनधर्म के परमोपासक एवं प्रचारक थे ।
सूरीश्वरजी म० को वैदिक धर्म की जड़ को खोखली करने के लिये महाराष्ट्र प्रान्त में ज्यादा स्थिरता करना भविष्य के लिये लाभप्रद ज्ञात हुआ अतः आपश्री ने जैन धर्म की पता का को महाराष्ट्र प्रान्त के इस छोर से उस छोर तक फहराने के लिये क्रमशः पाञ्च चातुर्मास महाराष्ट्र प्रान्त में ही किये। इन चातुर्मासों की दीर्घ अवधि में कई मार्ग स्खलित बन्धुओं को मार्गारूढ़ किया, कितने ही जैनेतरों को जैनत्व के संस्कारों से संस्कारित किये । एवं नये जैन बनाये कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाकर नये जैनों के संस्कारों को स्थायी एवं दृढ़ किये। कई भावुकों को दीक्षा देकर उनकी आत्माओं का कल्याण किया । कालान्तर में बीजापुर राजधानी में महाराष्ट्र प्रान्तीय श्रमणों की एक सभा की जिसमें श्वेताम्बर व दिगम्बर कई श्रमण एकत्रित हुए। श्रागत श्रमण मण्डली को आचार्यश्री ने ओजस्वी वाणी के द्वारा उपदेश दिया श्रमण बन्धुओं । इस संघर्ष के भयानक आप स्थत समय में ही आपकी कसोटी- परीक्षा है । यद्यपि बाह्य नामों के विशिष्ट एवं क्रियाओं की पारस्परिक विभिन्नता के कारण अपना समुदाय श्वेताम्बर, दिगम्बर रूप में विभक्त है किन्तु जैन धर्म के विस्तृत प्रचार के समय स्वश्राम्नाय की संकीर्ण भावना रखना अपने आप अपने पैरों में कुठाराघात करना है । अतः भ्रातृत्व के अनुराग पूर्ण व्यवहारों से- जैसा कि अभी दोनों समुदायों के श्रमणों में दृष्टिगोचर है-* जैन धर्म का प्रचार करते रहना चाहिये । अपन श्वे० दि० के रूप में अलग २ दीखते हैं पर भगवान् महावीर के अहिंसा एवं स्याद्वाद धर्म का रक्षण, पोषण, एवं प्रचार करने में एक ही है। याद रक्खो; जब तक अपनी संगठित शक्ति का अभेद दुर्ग जैसा का तैसा रहेगा वहाँ तक कोई भी विधर्मी अपने शासन को किसी भी तरह से धक्का पहुँचाने में समर्थ नहीं होगा और हम अपने कार्य में निरन्तर सफल ही होते जायेंगे। संगठन एवं प्रेम पूर्ण व्यवहार ही अभ्युदय के पाये हैं अतः कभी भी इनमें किसी भी तरह का फरक नहीं आने देना चाहिये ।
सूरीश्वरजी के उक्त पक्षपात रहित उपदेश एवं प्रेम पूर्ण भ्रातृत्व भाव के बर्ताव ने दिगम्बर एवं श्वेता
उस समय के मन्दिर मूर्तियों गुफाए स्थम्भ के तथा दानपत्रादि बहुत से प्रमाण उपलब्ध हो चूके हैं और अन्य कई स्थानों पर प्रकाशित भी हो चूके हैं अतः यहाँ पर समय एवं स्थान के अभाव नहीं दे सके तथापि पाठक ! प्रकाशित हुए प्रणामों को पढ़कर खात्री कर सकते हैं।
श्राचार्यश्री महाराष्ट्र प्रान्त में
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