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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ घोसवाल सं० १५०८ - १५२८ दान कुबेर भैंसाशाह सेठ की मानेश्वरी हैं । आप संघ को लेकर तीर्थों की यात्रा करने गई थीं । इन माताजी धर्मकार्य में परमोत्साह पूर्वक उदार दिल से इतना द्रव्य व्यय किया है कि इस समय इनका खजाना खाली हो गया है । आप कुछ द्रव्य इनको दीजिये । वतन पहुँचते ही हम आपकी रकम शीघ्र भिजवा देवेंगे । आप इस विषय में सर्वथा निश्चिन्त रहिये अन्यथा यह डिबिया गिरवे रख लीजिये । सेठ ने उक्त बातों पर सविशेष लक्ष्य न देते हुए हंसी ही हँसी में कह दिया- हम भैंसाशाह को नहीं जानते, हमारे यहां कई भैंसे पानी भरते हैं, उन्हें ही हम तो भैंसे समझते हैं। सेठ के उक्त अहंकार पूर्ण उपेक्षणीय वचनों को सुनकर माता के दिल में बड़ा ही रोष हुआ । बस, वे सत्वर वहां से अपने संघ में चली आईं। संघ में आगत लोगों को जब यह मालूम हुआ कि संघ की अभिनेत्री पाटण में द्रव्य का इन्तजाम करने गई थीं और इस तरह की अनहोनी घटना घटी तो उन लोगों को भी अपार दुःखानुभव हुआ। उन्होंने मिलकर इतना बेशुमार द्रव्य माता के सामने रख दिया और कहा- हे धर्म माता ! आपको जरुरत हो उतना द्रव्य काम में लीजिये । यह सब द्रव्य आप ही का है। किसी भी तरह का विचार या चिन्ता न करते हुए आप इसका स्वेच्छानुपूर्वक उपयोग कीजिये । माता उस द्रव्य में से ऋण लेकर अपना कार्य करती हुई क्रमशः भिन्नमाल के पास आपहुँची ।। संघ के सानन्द निवृत्ति के समाचारों से भैंसाशाह के हर्ष का पार नहीं रहा। उन्होंने संघ का बड़े ही समारोह से स्वागत करके नगर प्रवेश करवाया और मातेश्वरी से कुशल-क्षेम के समाचार पूछे । माता ने कहा- वत्स ! तुम्हारे जैसे सौभाग्यशाली मेरे सुपुत्र हों फिर यात्रा की कुशलता का कहना ही क्या, बड़े ही आनन्दपूर्वक मैंने यात्रा करके अपना जीवन सफल किया है। भैंसाशाह ने पूछा माता मेरा नाम कहां तक प्रचलित है ? माता ने कहा - 'इस नगर के दरवाजे तक' । माता के इस शुष्क, नीरस किन्तु सत्य उत्तर 'भैंसाशाह समझ गये कि माता को अवश्य ही मार्ग में तकलीफ उठानी पड़ी है। अतः सविस्मय उन्होंने अपनी जननी से पूछा- माता ! यह क्या कह रही हो ? इस पर उनकी माता ने पाटण का समस्त हाल कह सुनाया। भैंसाशाह को अपनी जननी के मुख से पाटण श्रेष्ठी के उपेक्षणीय समाचारों को सुनकर अतिशय दुःख हुआ । उन्होंने इसका प्रतिकार करने का अपने मन दृढ़ निश्चय कर लिया । एक दिन वीर भैंसाशाह ने अपने व्यापारियों को इस गर्ज से पाटण भेजा कि वहां जाकर वे घृत और तेल की इतनी खरीदी कर लेवें कि वहां के व्यापारी किसी हालत में भी इतना घृत तेल नहीं तोल सके । मारवाड़ के व्यापारी तो व्यापार में इतने कुशल एवं प्रकृतितः इतने हिम्मत बहादुर होते हैं कि उनके मुकाबले में दूसरे व्यापारी तनिक भी नहीं ठहर सकते हैं । तुम लोग जाकर शीघ्र ही अपनी मरु भूमि का गौरव एवं व्यापारिक कुशलाता का वहाँ ऐसा अक्षय परिचय दो कि मारवाड़ियों के व्यापार की छाप उन पर सर्वदा के लिये अंकित हो जाय । मरुधर वासियों की व्यापारिक कुशलता को वे लोग स्मृति विस्मृत न कर सकें । ऐसे तो मारवाड़ी व्यापारी समाज स्वभावतः व्यापार निष्णात होती ही है; उस पर अपने सेठ की सर्व सुविधाजनक आज्ञा तो निश्चित ही उनको अपनी सर्वाङ्गीण योग्यता दिखलाने के लिये पर्याप्त थी । बस, मारवाड़ के कुशल व्यापारी मालिक भैंसाशाह की आज्ञा को पाकर पाटण में जाकर घृत-तेल की खरीदी करनी प्रारम्भ करदी | ज्यों २ खरीदी होती गई त्यों २ भाव भी बढ़ाते गये । पाटण के व्यापारियों ने जब खूब तेज भाव देखा तो अपने आस पास के ग्रामों के आधार पर अधिक माल देना कर दिया । शाह के व्यापारियों को भी अब पाटण के व्यापारियों को छकाने का अच्छा अवसर हाथ लग गया । बस, शाह के व्यापारियों ने जिन २ से माल लेना किया था उन्हें तो रकम देदी और निकटस्थ ग्रामों में अपने आदमियों को भेज कर सब माल तेजी के भाव से खरीदना प्रारम्भ कर दिया। अब तो पाटण व्यापारियों को आसपास के ग्रामों माल - घृत, तेल मिलना महामुश्किल होगया। इधर भाव में तेजी होजाने के कारण लोभवश समीपस्थ शाह के व्यापारियों का गुजरात में जाना Jain Education International For Private & Personal Use Only १४६० www.janexbrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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