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________________ वि० सं० ६८० से ७२४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरि आचार्यरत्नप्रभसूरि, यतदेवसूरि, आर्यश्रीहस्तिसूरि और सुस्थीसूरि आदि महापुरुष अपने कार्य की मोटाई कहां लेने गये थे ? अरे ! गुण कभी छिपे नहीं रहते । कुसुमों की भीनी सौरभ अपने आप मधु. करों को आकर्षित कर लेती है। रत्न अपने मुंह से अपनी लाख रुपये की कीमत नहीं कहता किन्तु उनके गुणों से आकर्षित हो दुनियां अपने आप उनके गुणों को अपना लेती है । अतः मान एवं थोथी प्रशंसा के लोभ को तिलाञ्जली देकर कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर होते रहने की परमावश्यकता है । आर्यो ! आजका समय बड़ा ही विकट समय हैं । एक और तो देश पर अनार्यों के जनसंहारक भयंकर अक्रमण हो रहे हैं और दूसरी ओर बौद्धों, वेदान्तियों एवं बामपार्गियों के दारुण अाघात जैन धर्म को विचित्र परिस्थिति में उपस्थित कर रहे हैं । इस बिकट संघर्ष काल में यदि जैनश्रमण एकाध प्रांतमें अपनी प्रतिण्ठाजमाने के लिये बने बनाये श्रावकों को भिक्षा पर तथा उनके सामने उसी गोरख धंधा में लगे रहे तो जैन 'समाज का अस्तित्व अधिक समय तक स्थिर रहना अशक्य है अतः अपना कर्तव्य है कि सुख दुःख की किन्चित भी परवाह नहीं करते हुए अपने कर्तव्य पथ में हम सब लोग कटिबद्ध होकर आगे बढ़ें । यदि पूर्वाचार्यों के समान मून पूजी को ( श्रावक संख्या को ) बढ़ाने की हममें शक्ति नहीं है तो भी कम से कम मूल पुज्जी को खो देने जितनी योग्यता भी तो नहीं होनी चाहिये । मूल पन्जी को बढाना तो जागरूकता का लक्षण है किन्तु खोना अज्ञानता का सूचक है । बन्धुओं ! क्या जनकोपार्जित सम्पत्ति का रक्षण कर व्यापारादि स्वकीय कार्य कुशलता से उससे वृद्धि करना पुत्र का कर्तव्य नहीं है ? यदि है तो अपने को भी स्वल्प क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा जमाने के लिये बैठक अपनी प्रतिष्ठा खोना कहां तक समीचीन है ? क्या उन्हीं तेजस्वी आचार्यों की सन्तान उनके ( पूर्वाचार्यों ) द्वारा उपार्जित किये हुए द्रव्य का रक्षण करने में समर्थ नहीं है ? समय डंका की चोट कह रहा है कि अब तो हमें इससंघर्ष युग में अपने कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर होते हुए जैनत्व की विशालता को विश्वभर में विस्तृत्त करने की दृढ़ भावना करनी चाहिये । प्यारे श्रमण गण ! आप और हम अलग २ नहीं हैं पर भगवान महावीर की छत्रछाया में विचरने वाले और उनके द्वारा निर्धारित पताका को सर्वत्र फहराने वाले----नामों की विभिन्नता से भी एक ही है । अपना परम कर्तव्य है कि पारस्यरिक स्नेहभाव को बढ़ाते हुए शासन की खूब प्रभावना एवं सेवा करें। एक दूसरे के कार्य में मददगार बनें । श्रीसंघ का संगठन बल बढ़ाने । मुनियों के विहार क्षेत्र को विशाल बना । गृहस्थों के हृदय को उदार बना गच्छ समुदाय की बाढ़ा बन्दी आदि की दुर्गधे को जड़मून से निकाल दें। नये पुराने श्रावकों के भेदभाव की दुर्वासना की हवा न लगने दें। चाहे किसी भी वर्ण एवं जाति का क्यों न हो ! पर जिसने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया उसको वीर पुत्र अर्थात् अपने भाई के समान या श्रीसंघ के व्यक्ति के अधिकार के समान सा अधिकार रक्खें । बन्धुओं ! एक गृहस्थ के दस रुपये मासिक खर्च है और पंद्रह रुपये की आमदनी है तो दस रुपयों का खर्च असह्य किंवा रलमन में डालने वाला नहीं हो सकता है इसी प्रकार कमी जेन संख्या में किसी कारण से कभी हो पर अजैनों को जैन बनाकर उस घाटे की पूर्ति करदी जाय तो कभी घाटे का अनुभव नहीं हो सकता है पर दस की आय और पन्द्रह रुपये के व्यय का उदाहरण हमारे सामने आ जाय तब तो अत्यात विचारणीय एवं आश्चर्यो दायक ही है ? अरु इन सब कार्यों की जुम्मेवारी आप हम सब श्रमणों पर रखी हुई है इत्यादि । आचार्यदेव ने आये हुए वीर परम्परा के श्रमणों को अपने कर्तव्य मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शासन हित उपदेश १०९८ Jain Educson Hernational For Private & Personal Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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