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आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १०८०-११२४
को बुला कर आदेश दे दिया। पित्ताज्ञा पालक वे पुत्र भी उनकी प्रादेशनानुसार संघ के लिये आवश्यक सामग्री को एकत्रित करने में संलग्न बन गये । सब कार्य के लिये ठीक प्रबन्ध होने पर राव गोसल ने चारों ओर आमंत्रण पत्रिकाएं भेज दी । शुभमुहूर्त पर संघ गोसलपुर में विशाल संख्या में एकत्रित हो गया । आचार्यश्री ने भी समय पर राव गोसल को वासक्षेप एवं मंत्रों द्वारा संघपति बना दिया। शुभमुहूर्त में आचार्यश्री के नायकत्व और राव गोसल के संघपतित्व में संघ ने तीर्थश्री शत्रुजय की यात्रा के लिये प्रस्थान किया । क्रमशः संघ ने तीर्थश्री शत्रुञ्जय का दर्शन स्पर्शन पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्यादि शुभकार्य कर अपने को भाग्य शाली बनाया । अष्टान्हिका महोत्सव एवं ध्वजारोहणादि उत्सव करके अपने जीवन को सफल बनाया ।राव गोसल प्रभृति नूतनश्रावकों ने तो श्रीशत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर खूब ही आनन्द मनाया । कई साधुओं के साथ यात्रा कर श्रीसंघ, वापिस स्वस्थान लौट आया और श्राचार्यदेव अपने शिष्यों के साथकई दिनों के लिये तीर्थ की शीतल एवं पवित्र छाया में ठहर गये । वहां पर कुछ दिनों के पश्चात् कई वीर सन्तानिये मुनिवर्ग पृथक् २ स्थानों से संघ के साथ तीर्थ यात्रा के लिये आये जब उनको आचार्यश्री देवगुप्तसूरिजी के शत्रुञ्जय तीर्थ पर विराजने के समाचार ज्ञात हुए तो वे तत्काल सूरीश्वरजी की सेवा में वन्दनार्थ आये । उन्होंने आचार्य श्री की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा कि-पूज्यवर ! आपश्री के पूर्वाचार्य ने तथा आपने अनेक उपसगों एवं परिषहों को सहन कर जो जैन शासन की सेवा की एवं कर रहे है; उसके लिये समाज आपका चिरऋणी है । ऐसे तो जै नेतरों को जैन बनाकर महाजन संघ की सतत वृद्धि करते रहने का श्रेय आपश्री के पूर्वाचार्यों ने सम्पादन किया ही हैं किन्तु, महापुरुषों के अनुपम आदर्श का अनुसरण कर आपश्री ने जैनधर्म की प्रभावना करने में कुछ भी कसर नहीं रक्खी । एतदर्थ आपका जितना आभार माना जाय उतना ही थोड़ा है। जितना धन्यवाद दिया जाय उतना ही अल्प है। इसके प्रत्युत्तर में सूरीश्वरजी ने फरमाया----बन्धुओं ! इसमें धन्यवाद की एवं आभार स्वीकार करने की जरूरत ही क्या है ? यह तो मुनित्व जीवन को अपनाने के पश्चात् मुनियों के लिये खास कर्तव्य रूप हो जाता है । सुखोपभोग की अभिलाषाओं को तिलाञ्जली देकर पौदगलिक सुखों पर लात मार सम्पन्न घर को छोड़ आत्म कल्याण के लिये निकलने वाले मुनिवर्ग यदि अपने उक्त कर्तव्य को विस्मृत कर पुनः सांसारिक प्रपञ्चों के समान मुनित्व जीवन में नवीन प्रपञ्च उपस्थित करने में ही अपने कर्तव्य की इति श्री समझते हैं तो वे साधुत्ववृत्ति के नियमों एवं कर्तव्यों से कोसों दूर हैं श्रमण बन्धुओं ! अपनी तो शक्ति ही क्या है ? किन्तु अपने से पूर्व पार्श्वनाथ परम्परा के आचार्यों एक भगवान महावीर के प्राचार्यों ने जो जैनधर्म की अमूल्य सेवा की है उसका हम वों से वर्णन करने में भी असमर्थ हैं। उन महापुरुषों ने लाखों ही नहीं पर करोड़ो जैनेतरों को सद्धर्म का बोध देकर जैन बनाया । अनेकों का श्रात्मकल्याण किया । अनेक शासन प्रभावक अलौकिक कार्य किये किन्तु उन्होंने इन सब महत्व पूर्ण कार्यों में मान का एवं महत्व का छत्र प्राप्त करने की किञ्चत् भी भावना नहीं रक्खी । यदि वे प्रशसा एवं सम्मान के ही भखे होते तो इतना कार्य कभी नहीं कर सकते । कार्य करने की विशालता आत्मा के आन्तरिक भावों की उत्कर्षता पर अवलम्बित है । एवं प्रशंसा प्राप्ति की कुत्सित इच्छा उन्नति मार्ग की बाधिका है। अतः मानापमान, सुख, दुःख की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य मार्ग में संलग्न रहना साधुत्व जीवन को उन्नत बनाना है । जितना कार्य मनुष्य सादगी को अपना कर कर सकता है उतना कार्य बनावटी आडम्बरों एवं मान महत्व के गुलामों से नहीं हो सकता है । श्राचार्यश्री स्वयंप्रभ शत्रुजय पर वीर संतानियों का समागम
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