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वि० सं० ६८५-७२४]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भरा हुभा था । वे धर्म की प्रभावना एवं उन्नति में अपनी व मुनि समाज की सुचारित्रवृत्ति की उन्नति ही समझते थे । यही कारण था कि गोसलपुर की नवीन आबादी को जैनधर्म का असली एवं स्थायी पाठ पढ़ाने के लिये प्राचार्यदेव ने अपने भौतिक सुखों की परवाह किये बिना ही वहां पर चातुर्मास कर दिया। एक ओर तो सूरीश्वरजी का व्याख्यान हमेशा होता था और दूसरी ओर शेष मुनि गोसलपुर की जनता को श्रावकों की नित्य क्रया एवं प्राचार विचार की शिक्षा देकर जैनधर्म में दृढ़ श्रद्धावान् बना रहे थे।
इस तरह चातुर्मास सानंद धर्माराधना पूर्वक समाप्त होगया। चातुर्मास के समाप्त होते ही भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े ही धूमधाम से करवाई गई । राव गोसल के लिये मन्दिर बनवा कर प्रतिष्ठा करवाने का जैनधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् पहिला ही मौका था अतः उनके उत्साह एवं लगन का पारावार नहीं रहा । उन्होंने पुष्कल द्रव्य का व्यय कर आये हुए स्वधर्मी भाइयों को पहिरावणी में एक एक सुवर्ण मुद्रिका और सवा सेर का मोदक दिया। याचकों को तो प्रचुर परिणाम में दान दिया गया। उन्होंने आर्य जाति के यशोगान से गगन गुंजा दिया।
इस तरह आचार्यदेव की परम कृपा से जिनालय की प्रतिष्ठा का कार्य होते ही राव गोसल ने अत्यन्त नम्रता पूर्वक सूरीश्वरजी के चरण कमलों में अर्ज की कि-भगवन् ! कृपा कर और भी मेरे करने योग्य धर्म कार्याराधन के लिये फरमावे । सूरिजी ने कहा-गोसल ! गृहस्थों के करने योग्य कार्यों में मंदिर बनवा कर दर्शन साधना करना और तीर्थयात्रा के लिये संध निकाल कर अक्षय पुण्य सम्पादन करना गृहस्थों के करने योग्य धर्म कार्यों में प्रमुख कार्य है । उक्त कार्यों में से मन्दिर का निर्माण करवा प्रतिष्ठा करवाने का कार्य तो सानंद सम्पन्न हो गया । अब रहा एक संघ निकालने का कार्य सो भी समय की अनुकूलता होने पर कभी कर लेना । गोसल ने कहा-पूज्यवर ! आपकी कृपा से सब अनुकूलता ही है। मेरे लिये श्रापभी के विराजने एवं आपके अध्यक्ष त्व में संघ निकालने का अलभ्य अवसर न मालूम कब प्राप्त होगा। अतः आपकी उपस्थिति में ही यह काम निर्विघ्न हो जाय तो अपने आपको कृतकृत्य हुआ समझ । आयुष्य एवं शरीर का किश्चित भी विश्वास नहीं इसलिये आप जैसे महापुरुषों के समागम का सौभाग्य प्राप्त होने पर भी यदि धर्म कार्य में शिथिलता की जाय शक्ति के होने पर भी निशक्तता प्रगट की जाय तो उसके जैसा दुर्भाग्यशाली ही दुनियां में कौन होगा प्रभो ! श्राप कुछ समय की स्थिरता कर इस दास को कृतकृत्य करें। आपके इन उपकार ऋण से उऋण होने की तो मेरे में किञ्चित् भी शक्ति नहीं किन्तु दयानिधान !
आपका तो सद्बाध रूपी दान देना का अपूर्व गुण ही है । इस अनभिज्ञ क्षेत्र में कुछ समय तक और विराजने से हम लोगों को धर्मलाभ का सुअवसर प्राप्त होगा एवं आपकी कृपा से संघ निकालने में भाग्य शाली बन सकूँगा । श्राचायश्री ने गोसल की प्रार्थना को स्वीकार करली । गोसल ने भी अपने आठों पुत्रों अबहेलना की दरकार किये बिना धर्म प्रचार के रणक्षेत्र में निर्मोही की तरह कूद करके ताइना, तर्जनादि शस्त्र जन्य घावों को साते हुए विजयी पोद्धा की तरह अपने मार्ग में बढ़ते ही रहना चाहिये । अपने प्रचार कार्य में दिन दूनी और रात चौगुनी वृद्धि करना चाहिये पर दुःख है कि आज उन्हीं की सन्तान हम लोग ऐसे सपूत हैं कि हमारे द्वारा नये जैन बनाये जाना तो दर किनारे रहा पर हमारे आचार्यों के द्वारा बनाये गये जैनों का रक्षण करने में भी हम समर्थ नहीं । मूल पुजी सम्भालकर रखने जितनी भी हममें ताकत नहीं यही कारण है कि हमारी संख्या दिन पर दिन घट रही है और हम कुम्भकर्णी मिद्रा में सोये हुए हैं।
सूरिजी का चतुर्मास और तीर्थों का संघ
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