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वि० सं० ११२८-११७४]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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एवं दरबार देख कर आश्चर्यान्वित बन गये कि सच्च शाह तो शाह ही है इन महाजनों की बराबरी संसार में क्या राजा और क्या बादशाह कोई नहीं कर सकते हैं ? उस दिन से इन बांठियों की जाति शाह हो गई। इनके भाई हरखाजी थे उनकी संतान हरखावतों के नाम से प्रसिद्ध हुई इस प्रकार बांठियाँ जाति की शाखाएं प्रसिद्धि में आई। बांठियाँ जाति का शुरू से आज तक का कुर्सीनामा श्रीमान् धनरुपमलजी शाह अजमेर वालों के पास विद्यमान है जिज्ञासुओं को मंगवाकर पढ़ लेना चाहिये।
२-बरड़िया-आचार्य कृष्णार्षि एक समय बिहार करते हुए 'नागपुर में पधारे वहां पर एक नारायण नाम का सेठ रहता था उसका धर्म तो ब्राह्मण धर्म था पर उसके दिल में कुछ अर्से से शंका थी जब कृष्णार्षि नागपुर में आये तो नारायण ने गुरुजी के पास जाकर धर्म के विषय में प्रश्न किया तो गुरुजी ने अहिंसा परमोधर्म के विषय में बड़ा ही रोचक और प्रभावपूर्ण जोरदार उपदेश दिया जिसको सुन कर नारायण ने अपने ४०० साथियों के साथ जैन धर्म को स्वीकार कर लिया।
श्री कृष्णार्षि के उपदेश से श्रेष्ठि नारायण ने एक मन्दिर बनाने का निश्चय किया । अतः वहाँ बहुमूल्य भेट लेकर राजा के पास गया नजराना करके भूमि की याचना की। इस पर धर्मात्मा नरेश ने कहा सेठजी देव मन्दिर के लिये भूमि निमित भेट की क्या जरूरत है ? आप भाग्यशाली हैं कि अपने पास से द्रव्य व्यय कर सर्व साधारण के हितार्थ मन्दिर बनाते हैं तब भूमि जितना लाभ तो मुझे भी लेने दीजिये। अत: आपको जहाँ पसन्द हो भूमि ले लीजिये इत्यादि । सेठ नारायण ने किले के अन्दर ही भूमि पसन्द की। राजा ने आदेश दे दिया बस सेठ ने बहुत जल्दी से जैन मन्दिर बनवा दिया। अधिक कारीगर एवं मजदूर लगाने से मन्दिर जल्दी से तैयार होगया जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य देवगुप्तसूरि के कर कमलों से करवाई और उस मन्दिर की सार संभार के लिये एक संस्था कायम की जिसमें ७२ पुरुष एवं ७२ स्त्रियाँ सभासद बनाये गये इससे पाया जाता है कि एक समय मन्दिरों की सार संभार में स्त्रियाँ भी अच्छा भाग लिया करती थी।
इनकी सन्तान परम्परा में पुनड़ नाम का एक नामांकित श्रेष्ठि हुआ। देहलीपति बादशाह का वह पूर्ण कृपा पात्र था अर्थात् बादशाह पुनड़ का बड़ा ही मान सन्मान रखता था एक समय पुनड़ ने नागपुर से एक यात्रार्थ शत्रुञ्जय गिरनार का बड़ा भारी संघ निकाला जब गुर्जर भूमि में पदार्पण किया तो वस्तुपाल तेजपाल ने उस संघ पति एवं संघ का बड़ा भारी सम्मान किया । वस्तुपाल तेजपाल के गुरू आचार्य जगच्चन्द्रसूरि वगैरह संघ में शामिल हुए। ओर अधिक परिचय के कारण श्रीमान पुन शाह उन प्राचार्यों की उपासना एवं समाचारी करने लगा वे अद्यावधि तपागच्छ के ही उपासक बने हुए है।
३-संघी जैन जातियों में यों तो संघी प्रत्येक जाति में पाये जाते हैं कारण जिस किसी ने तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल कर पहरावणी देता है केही संघी कहलाते हैं पर हम यहाँ पर उस संघी जाति की उत्पति को लिखते हैं कि जो अजैनों से जैन बनते ही वे संघी कहलाए।
वि० सं० १०२१ में पारार्य सर्वदेवसूरि विहार करते हुए बाबू के आस-पास पधारे वहाँ एक ढेल. ड़िया नाम का अच्छा कस्बा था वहां पर संघराव नामक पंवार राजा राज करता था जब आचायं सर्वदेवसूरि ढेलड़िया ग्राम में पधारे तो संघराव वगैरह सूरिजी के दर्शनार्थ आये । सूरिजी ने धर्मोपदेश दिया जिसको श्रण कर संघराव प्रसन्न चित्त हुआ तत्पश्चात् संघराव ने सूरिजी से प्रार्थना की कि भगवान मेरे धन सम्पत्ति तो बहुत है पर पुत्र नहीं है ? सूरिजी ने अपने स्वरोदय ज्ञान से देख कर कहा रावजी संसार में धर्म कल्प वृत है । आप जैन धर्म की उपासना करो तो इस भव और परभव में हितकारी है। बस, सूरिजी के वचन पर संघराव ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया । अन्तराय कर्म हटते ही एक वर्ष में ही रावजी के पुत्र हो गया जिसका नाम विजयराव रखा अब तो रावजी की धर्म पर पूर्ण श्रद्धा होगई । जब विजयराव बड़ा हुआ तब उसने अपने माता पिता की इजाजत लेकर विराट संघ निकाला और साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मुद्रिकाएं १५००
जैन जातियों की उत्पति का वर्णन
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