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________________ प्राचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ दुष्काजादि में देश सेवा तथा जनोपयोगी गलाब कुवें वगैरह करवाने का और इन जातियों के वीर पुरुषों ने अपने देश वासियों के तन मन धन एवं बहिन बेटियों के सतीत्व धर्म की रक्षा के लिये युद्ध कर म्लेच्छों को परास्त किये तथा अपने प्राणों की आहती देकर बड़ी बड़ी सेवाएं की तथा उन युद्ध में काम आने वालों की धर्मपलियाँ जो अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा एवं पति के अनुराग से उनके पीछे उनकी धकधक करती हुई चिता की अग्नि में सती होगई इन सब बातों का उल्लेख वंशावलियों में किया गया है पर ग्रंथ बढ़ जाने के भय से यहां पर इतना ही लिखा है। हाँ, कभी समय मिला तो एक अलग पुस्तक रूप में छपवा कर पाठकों के कर कमलों में रख दिया जायगा। ___ बांठिया जाति को वि० सं० ६१२ में आचार्य भावदेवसूरि ने आबू के पास पास परमा नाम के गांव के राव माघुदेवादि को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। उन्होंने तीर्थ श्री शत्रुञ्जय का विराट संघ निकाला जिसमें इतने मनुष्य थे कि जंगल में बांठ-बांठ पर आदमी दीखने लगे और संघपति ने उदारता से बांठ बांठ पर रहे हुए प्रत्येक नर नारी को पहरायणी दो जिससे जनता कहने लग गई कि संघपतिजी का क्या कहना है आपने बांठ बांठ पर पहरावणी दी है बस उसी दिन से आपकी सन्तान बांठिया नाम से प्रसिद्ध हुई । इस जाति में बहुत से ऐसे नामांकित पुरुष हुए कि वि० सं० १३४० के पास पास में बांठिया रनाशाह के संघ में रुपयों की कावड़े ही चल रही थी। इससे वे कवाड़ के नाम से मशहर हए । वि० सं०१६३१ में बादशाह को बोहरे की जरुरत पड़ी, जोधपुर दरबार को कहा तो आपने मेड़ता के बांठियों को बतलाये । पर उनके पास इतनी रकम न होने से कुछ चिंता होने लगी एक दिन शाहजी व्याख्यान में गये थे, पर वे उदास थे। व्याख्यान के बाद आचार्य ने शाहजी को उदासी का कारण पूछा तो शाइजी ने कहा कि दरबार के कहने से हम बादशाह के बोहरे तो बन गये हैं पर हमारे पास इतनी रकम नहीं है न जाने बादशाह किस समय कितनी रकम माँग बैठे। इस पर आचार्यश्री ने कहा कि आपके घर में जितने सिक्के हों उतनी थैलियां बना कर उसमें सिके डाल कर रख देना । शाहजी ने ऐसा ही किया जब समय पाकर आचार्यश्री शाहजी के यहां गये तो उन सिक्के वाली थैलियों पर वासक्षेप डाल कर कहा कि इन थैलियों में से किसी को भी उलटना नहीं, जितना चाहो द्रव्य निकालते ही रहना बल, फिर तो था ही क्या । शाइजी रात और दिन में एक-एक थैली से रुपये निकाले कि शाहजी के घर में ऐसा कोई स्थान ही नहीं कि जहां रुपये रक्खे जाय अतः शाहजी के मकान के पीछे एक पशु बांधने का नोहरा था उसके अन्दर ८४ खाड़े खुदवा कर उनके अन्दर वे ८४ सिक्कों के रुपये भर कर उन पर रेती डाल दी और पाना जाबता भी कर दिया। जब बादशाह ने सोचा कि कमी रकम की आवश्यकता हो जाय तो बोहरे की परीक्षा तो कर ली जाय कि कभी काम पड़ जाय तो कितनी रकम दे सके अतः बादशाह चल कर जोधपुर आया और जोधपुर नरेश को लेकर मेड़ते आये शाहजी को बुला कर कहा कि आप हम को कितनी रकम दे सकेंगे ? शाहजी ने कहा कि श्राप किस सिक्के के रुपचे चाहते हैं। बादशाह ने कहा कि आपके पास कितने सिके हैं ? शाहजी ने कहा हम महाजन हैं मल्क में जितने सिक्के चलते हैं वह हमारे पास मिलते हैं। बादशाह ने सोचा कि महाजन लोग अपनी वाक् पटुता से ही शेखी फांकते हैं। बादशाह ने कहा आप एक एक सिक्के की कितनी रकम दे सकते हो ? शाइजी ने कहा मेड़ता और देहली तक एक एक सिक्के के रुपयों के छकड़े से छकड़ा जोड़ दूंगा । बतलाइये आपको कितनी रकम की जरूरत है ? बादशाह को शाहजी के कहने पर विश्वास नहीं हुआ। बादशाह ने शाहजी से कहा कि चलिये आपके रुपयों का खजाना बतलाइये । शाहजी मकान से उठ कर नौहरे में आये और अपने अनुचरों को बुलाकर तैय्यार रखा बाद में बादशाह और दरबार को बुलाया। उस नौहरे में घास फूस था बादशाह ने कहा कि हम आपकी रकम का खजाना देखना चाहते हैं शाहजी ने नौकरों को आर्डर दिया और वे कुसी पावड़ों से रेती दूर कर एक एक सिक्के का नमूना बतलाने लगे कि बादशाह जैन जातियों की उत्पति का वर्णन १४६६ Jain Education inte For Private & Personal Use Only www.jaineribrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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