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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के होते हुए भी आत्महित न किया जाय तो लोहाबनियं की भांति पश्चाताप करना पड़ेगा अतः समय जा रहा है जिस किसी को चेतना हो चेत लो हम लोग पुकार पुकार के कह रहे हैं इत्यादि । यों तो सूरिजी के उपदेश का बहुत भावुकों पर असर हुआ पर विशेष शाह ऊमा के पुत्र सारंग पर तो इतना प्रभाव पड़ा कि संसार से विरक्त हो सूरिजी के चरणों में दीक्षा लेने का उसने निश्चय कर लिया । इधर शाह ऊमा को भी वैराग्य हो आया पर जब उसने कुटुम्ब की ओर दृष्टि डाली तो उसको मोह राजा के दूतों ने धार लिया। खैर व्याख्यान समाप्त होने पर सब लोग चले गये । सारंग भी अपने घर पर आया और अपने मातापिता से कहा कि मेरी इच्छा सूरिजी के पास दीक्षा लेने की है यह देवदत्त हार वगैरह सब संभाले । ऊमा की श्रात्मा में पुनः वैराग्य की ज्योति जाग उठी और उसने कहा सारंग ! मैं दीक्षा लूगा तूं घर में रह कर कुटुम्ब का पालन कर ? सारंग ने कहा पूज्य पिताजी ! बहुत खुशी की बात है कि आप दीक्षा ले रहे है पर मेरा भी तो कर्तव्य है कि मैं आपकी सेवा में रहूँ । तथा आप कुटुंब का फिक्र क्यों करते हो सब जीव अपने-अपने पुन्य साथ में लेकर ही आये हैं इनके लिये आपका मोह व्यर्थ है आप तो दीक्षा लेकर अपना कल्याण करे । बस शाह ऊमा और सारंग ने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया इस बात की खबर कुटुम्ब बालों को मिली तो वे कब चाहते थे कि शाह ऊमा एवं सारंग जैसे हमको तथा हमारे सव कार्यों को छोड़ कर दीक्षा लेलें । सेठानीजी ने अपने पति एवं पुत्र को समझाने की बहुत कोशिश की पर जिन्होंने ज्ञान दृष्टि से संसार को काराग्रह जान लिया हो वे कब इस संसार रूपी जाल में फंस कर अपना अहित कर सकते हैं, आखिर शाह ऊमा के चार पुत्र और स्त्री दीक्षा लेने को तैयार हो गये इतना ही क्यों पर कई ३७ नर-नारी और भी दीक्षा के लिये उम्मेदवार बन गये शाह ऊमा के पुत्र ने लाखों का द्रव्य व्यय कर दीक्षा का बड़ा ही समारोह से महोत्सव किया और शुभ मुहूर्त एवं स्थिर लग्न में सारंगादि ४२ नरनारी को भगवती जैन दीक्षा देकर उन सबका उद्धार किया और सारंग का नाम मुनि शेखरप्रभ रख दिया इस प्रभावशाली कार्य से जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई और इस प्रभावना का प्रभाव कई जैनेत्तर जनता पर भी हुआ कि बहुत से लोगों ने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया उन सबको महाजन संघ में सम्मिलित कर दिया । अहा-हा वह कैसा जमाना था कि जैनाचार्य जिस प्रान्त में पदार्पण करते उसी प्रान्त में जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत होता था जैनेतरों को जैन वनाना तो उनके गुरु परम्परा ही से चला आ रहा था यही कारण है कि महाजन संघ की संख्या लाखों की थीं वह करोड़ों तक पहुँच गई थी और श्रमण संघ की संख्या भी बढ़ती गई कि कोई भी प्रॉत ऐसा नहीं रहा कि जहाँ जैनश्रमणों का बिहार नहीं होता हो क्या आज के सूरीश्वर इस बात को समझेंगे ? जिस समय शाह ऊमा और सारंग गृहस्थ वास में थे उस समय उनकी इच्छा श्रीसम्मेतशिखरजी का संघ निकाल यात्रा करने की थी परन्तु सूरिजी के उपदेश से उन्होंने वैराग्य की धून में दीक्षा ले ली फिरभी आपके दिल में यात्रा करने की उत्कृष्टता ज्यों की त्यों वृद्धि पा रही थी शाह ऊमा ने दीक्षा ली तो उसका नाम उत्तमविजय रखा गया था उसने अपने पुत्र पुनड़ को उपदेश दिया और उसने बड़ी खुशी के साथ सम्मेत शिखरजी का संघ निकालना अपना अहोभाग्य समझ कर स्वीकार कर लिया बस फिर तो कहना ही क्या था ? शाह पुनड़ बड़ा ही उदार दिल वाला था उसने श्राचार्य देवगुप्तसूरि की सम्मति लेकर संघ आमन्त्रण की पत्रिकाए खूब दूर-दूर भिजवादी पट्टावलीकार लिखते हैं कि शाह पुनड़ के संघ सारंग का वैराग्य और पिता के साथ दीक्षा ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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