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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२० - ९५८ वह सब पाप हमको लगेगा आप बलि देकर हम सबको सुखी बनाइये । सारंग ने कहा कि आपको अभी न तो तात्विक ज्ञान है और न पाप पुन्य का भी भान है । आपतो केवल अपना स्वार्थ करना ही जानते हैं भला मैं आपसे ही पूछता हूँ कि आपके अन्दर से अपने प्राणों की बलि देने को कौन २ तय्यार हैं ? बस सबने मुंह मोड़ लिया । सारंग ने कहा देखिये जैसे आपको अपने प्राण प्रिय हैं वैसे ही सब जीवों के प्राण उनको भी प्रिय है भला केवल अपने स्वल्प स्वार्थ के लिये दूसरों के प्राण नष्ट कर देना कितना अन्याय है इस प्रकार बातें हो रही थी इतने में तो देव हाथ में तलवार लेकर सारंग के पास आया और कहा कि - अरे मेरी आज्ञा का भंग करने वाला सारंग ! बोल तेरा कितना खण्ड करू ? और तेरे जहाज को अभी समुद्र में डुबा दूंगा, इत्यादि भयंकर शब्दों से सारंग पर जोरों से आक्रमण किया । सारंग ने कहा कि मेरा खंडखंड करदे इसका तो मुझे तनिक भी रंज नहीं है पर देव ! आपकी मुझे बड़ी दया श्रा रही है कि पूर्व जन्म में तो बहुत जीवों को आराम पहुँचाया है कि जिस पुन्य से तुमने देवयोनि को प्राप्त की है और इस देवयोनि में इस प्रकार क्रूर कर्म करते हो तो इससे न जाने आपकी क्या गति होगी ? मैं जानता हूँ कि देव दानव इस प्रकार न तो बलि लेते हैं और न ऐसे घृणित पदार्थ देवताओं के काम ही आते हैं फिर समझ में नहीं आता है कि यह निरर्थक कर्म क्यों बान्धा जाता है इत्यादि मार्मिक शब्दों में ऐसा उपदेश दिया कि जिससे देव का भ्रम दूर हो गया और उसने कहा सारंग ! आज प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं किसी जीव की बलि नहीं लूंगा और आज से मैं आपको अपना गुरु समरंगा | कृपा कर आप मुझे ऐसा कार्य फरमावें मैं उसको करके आपके उपकार रूपी ऋण को थोड़ा हलका कर दूं । सारंग ने कहा देव ! आप स्वयं ज्ञानवान हैं फिर भी आप ने बलि न लेने की प्रतिज्ञा की है यह हमारा बड़ा से बड़ा काम किया है दूसरा तो मेरे निज के लिये कुच्छ भी ऐसा काम नहीं है कि श्राप से करवाया जाय । तथापि देवता ने कृतार्थ बनने के लिये एक दिव्य हार सारंग को दे दिया और कहा खारंग इस हार के प्रभाव से जहाज समुद्र में डुवेगा नहीं, चोर पास में श्रावेगा नहीं, और संग्राम में कभी पराजित होगा नहीं बाद देवता सारंग को नमस्कार कर के चला गया । जहाज वाले सब लोग सारंग की दृढ़ता से उसकी विजय को देख मुग्ध बन गये और सारंग के चरणों में नमन कर के उनकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । सारंग ने कहा कि आप लोग भी अपने धर्म पर इसी प्रकार दृढ़ता रखा करो कारण सब पदार्थ मिलते हैं पर एक धर्म मिलना मुश्किल है इत्यादि उपसर्ग शान्त होने के बाद जहाजें चली सब लोग इच्छित स्थान पर पहुँच गये उन जहाजों के माल विक्रय से सारंग एवं अन्य व्यापारियों को बहुत मुनाफा रहा और सकुशल सब लोग अपने नगर को पहुँच गये - एवं सुख से रहने लगे । आचार्य देव गुप्तसूरि धर्मोपदेश करते हुए एक समय चित्रकोट की ओर पधार रहे थे वहां के श्री संघ को खबर मिली तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा क्रमशः श्रीसंघ ओर से सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव किया गया सूरिजी ने मंगलाचरण के बाद थोड़ी पर सार गर्भित देशना दी शाह ऊमा एवं सारंग वगैरह में तो सूरिजी की सेवा में रह कर अपना कल्याण सम्पादन करने लगे एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान संसार की असारता लक्ष्मी की चंचलता कुटम्ब की स्वार्थता आयुष्य की अस्थिरता और शरीर की क्षण भंगुरता पर बड़ा ही प्रभावोत्पादक व्याख्यान दिया । साथ में यह भी बतलाया कि महानुभावों ! श्राम कल्याण के लिये जो इस समय सामग्री मिली है वह बार बार मिलनी बहुत कठिन है। यदि उत्तम सामग्री ८६८ Jain Education international [ सारंग का उपदेश और हार की प्राप्ति www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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