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________________ वि० सं० ६६० से ६८.] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को अस्ति और अस्ति पदार्थ को नास्ति नहीं कहते हैं। जैसे कि सर्वोपरी विद्वान को एक चूडी दे कर पुच्छे कि इसका सांध ( अन्त ) कहां है ? इस पर वह विद्वान यही कहगा कि इस चूड़ी की सांध नहीं है इसपर कोई अल्पज्ञ कहदे कि आप कहां के विद्वान जबकि हमारी चूड़ी का अन्त ही नहीं बता सके ? विद्वान ने कहा कि मैं अच्छी तरह से जान गया हूँ कि इस चूड़ी का अन्त है ही नहीं। इससे आप लोग अच्छी तरह से समझ गये होंगे कि काल और सृष्टि की न तो श्रादि है और न अन्त ही है। (२) श्रात्मवादः-जीवात्मा सच्चिदानन्द की अपेक्षा तो सब सदृश्य ही है पर अवस्थापेक्ष्य दो प्रकार के हैं- एक कर्ममुक्त-जो ईश्वर परमात्मा कहलाते हैं। उक्तमुक्त जीवों ने तप, संयम से आत्मा के साथ में लगे हुए अनादि काल से कर्म पुद्गलों का नाश कर जन्म मरण के भयंकर चक्र रहित श्रात्मीयानंद की चरमसीमा रूप मोक्षगति को प्राप्त करके ईश्वरीय सत्ता को प्राप्त की है। संसार में परिभ्रमन कराने के मूल कारण कर्म रूप बीज को वे जला डालते हैं अतः जले हुए बीज के समान वे संसार में जन्म मरण नहीं करते हैं । उसको कर्ममुक्त मोक्ष आत्मा कहते हैं । दसरे संसारी जीव हैं वे नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव, ऐसे चतुर्गति रूप संसार की चौरासी लक्ष जीवयोनि में स्वकृत कर्मानुसार परिभ्रमन करते रहते हैं । आत्म कल्याण की अनुकूल सामग्री तो उक्त चार गतियों में से एक मनुष्य गति में ही प्राप्त हो सकती है। यदि साधनों की अनुकूलता का सद्भाव होने पर भी उसका मनुष्य, सदुपयोग नहीं करे तो अन्त में उसको एतद्विषयक परिताप होता ही है किन्तु पापोदय से व निकाचित कर्म बंधन के तीव्र आवरण से कितनेक जीव, इन्द्रियों के वशीभूत हो शिकार, मांस, मदिरादि हेय पदार्थों का उपयोग कर व्यभिचारादि अनेक दोषों का सेवन करते हैं । और अन्त में कर्जदार की भांति पाप का भार लाद कर नरक तिर्यश्च के असह्य दुःखों का अनुभव करते हैं । यद्यपि पूर्व कृत पुण्याधिक्य से कितनेक पुण्यशाली जीवों को इस भव में उनके किये हुए कर्मों का कुछ भी कटुफल नहीं मिलता है किन्तु उनको उस समय ऐसा सोचा चाहिये कि--संसार में जो इतने धन जन व्याधि वगैरह अनेक प्रकार के दुख से संतापित मनुष्य दृष्टिगोचर होते हैं वे भी अवश्य ही उनके किये हुए दुष्कर्मों का परिणाम है अतः पाप करने वाले पापी जीव को तथा अन्य दुःखी जीवों से पाप नहीं करने की शिक्षा लेनी चारिये । पापी जीव को इस भवपरभव सर्वत्र दुःख ही दुःख है । धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले को सदा आनंद ही आनंद हैं । ___ कर्मवादः-संसार के चराचर जीव कर्मों की पाश में बंधे हुए हैं। अनादि काल से सम्बन्धित कर्म उनको जन्म मरण के भयंकर चक्र में चक्रवत फिराते रहते हैं। अच्छे कर्म करने वाले को भव भव में सुख एव श्राराम प्राप्त होता है और इसके विपरीत बुरे कर्म उभय लोक में सन्ताप के कारण बनते हैं । अतः कर्मोपार्जन से भीरू बनकर जीव को धर्म मार्ग में प्रवृत्ति करने के लिये कटिबद्ध रहना चाहिये । इस विषय को तो सूरिजी ने खूब ही विस्तार पूर्वक वर्णन किया। ४. क्रियावाद-अशुभ क्रिया से अलग रहते हुए शुभ क्रिया में यथावत् प्रवृत्ति करना मनुष्य मात्र का परम कर्तव्य है । इसके भी कई भेदानुभेद बताये । और खूब ही सूक्ष्म क्रिया बाद का निरुषण किया। ५. धर्मवाद--मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि वह खूब बारीकी से परीक्षा करे । कारण-"बुद्धिफलं तत्व विचारणं च” परन्तु आज कल धर्म के विषय में भिन्न २ लोगों की भिन्न २ धारणाएं होगई है । कोई तो कुल-प्रवृत्ति को ही धर्ममान बैठे हैं और कई परम्परा से चले आये धर्म को ही धर्म मार्ग, स्वीकृत किये १०७४ सरीश्वरजी का तात्वीक व्याख्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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