________________
वि० सं० ११२८-११७४ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
mmmmmmmmmmmmmm
भी तो भोजन करेगा। बस, वह बनाया हुआ मांस का भोजन ज्यों का त्यों पा रहा। अब तो यह बात अन्तेवरादि सर्वत्र फैल गई । दूसरे दिन कुछ समय के बाद सूरिजी राज सभा में पधारे । राजा ने सिंहासन से उतर कर सूरिजी का सम्मान किया और उच्चासन पर बिराजने की प्रार्थना की। सूरिजी भूमि प्रमार्जन कर अपनी कम्बली बिछा कर योग्य स्थान पर बैठ गये। सूरिजी को प्राया देख बहुत से दूसरे लोग भी सभा में आगए । कुछ अन्तर में जनाना सरदार भी बैठ गये । तत्पश्चात् सूरिजी ने अपना उपदेश देना प्रारम्भ किया जिसमें पहले हिंसा के कटु फल का बयान किया। बाद में अहिंसा से होने वाले फायदों का सविस्तार विवेचन किया। तत्पश्चात् जैन तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में अवतार लेकर अहिंसा का खूब जोरों से उपदेश दिया इत्यादि सूरिजी ने ऐसा प्रभावोत्पादक उपदेश दिया कि राजा के एक-एक प्रदेश में सूरिजी का उपदेश खीर नीर की तरह निवास कर दिया । बस क्षत्रिय जैसी वीर जाति के समझ में श्राजाने के बाद तो कहना ही क्या ? राजा और राणी व पुत्रादि सब लोगों ने मांस मदिरादि बुरे कर्मों को त्याग कर जैनधर्म अर्थात् अहिंसा परमोधर्मः को स्वीकार कर लिया फिर तो 'यथा राजास्तथा प्रजा' वाली युक्ति से और भी बहुत से लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया।
राव जगमाल ने अपने नगरी में भ० महावीर का मंदिर बनवाया, राव जगमल के बड़े पुत्र झामड़ ने तीर्थों की यात्रार्थ बड़ा भारी संघ निकाला। श्री शत्रुञ्जय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा कर वापस आये और स्वामी वात्सल्य कर संघ पूजा कर पहरावणी दी। आगे चल कर राव झामड़ की संतान झामड़ नाम से मशहूर हुई । तथा कई स्थानों पर यह भी लिखा मिलता है कि झामड के वृक्ष के नीचे शुभ लग्न में सूरिजी ने वासक्षेप दिया था जिससे वे खूब ही फूले फले । इससे वे झामड़ की सन्तान मामड़ कहलाये तथा जाबक जंबक वगैरह इस मामड़ जाति की शाखाएं हैं फिर तो इस खानदान की झामड़ जाति बन झाड़ के नीचे झामड़ कहलाये और इस जाति की उत्तरोत्तर इतनी वृद्धि हुई कि सर्वत्र प्रसरित होगई और कई उदार एवं वीर नररत्नों ने देश समाज एवं धर्म की बड़ी-बड़ी सेवाएं की और कई कारणों से इस जाति की कई शाखायें रूप जातियें बन गई । इस जाति की वंशावलियों तपागच्छ के कुलगुरु लिखते हैं।
४-सुराणा जाति-वि० सं० ११३२ में प्राचार्य धर्मघोषसूरि बिहार करते हुए अजयगढ़ के आस पास में ज्येष्टापुर नगर में पधारे वहांके पंवार रावसूर को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। राव सूर की संतान सुराणा कहलाई। राव सूर के लघु भ्राता राव संखला की संतान संखला कहलाई । कुल देवी माता संसाणी ।
__ भणवट जाति-वि० सं० ११३२ में आचार्य धर्मबोषसूरि विहार करते हुए वणवली नार में पधारे वहां के चौहान राव पृथ्वीपालादि को प्रतिबोध देखकर वासक्षेत्र के विधि विधान से जैन बनाये ! राव पृथ्वीपाल के सात पुत्र थे उसमें कुमुद और महीपाल व्यापार करने लग गये और मुकुन्द ने अपने नगर में भ० महावीर का उत्तंग मन्दिर बनाया। मुकन्द का पुत्र साहरण हुआ उसने वहां भणवट अर्थात् जहाजों द्वारा विदेशों में माल ले जाना तथा वहां से आते समय वहां का माल एवं जवाहारात वगैरह लाना यह व्यापार किया । साहरण ने व्यापार में अपार द्रव्य उपार्जन किया। इसने आचार्यश्री के उपदेश से तीर्थ यात्रार्थ वड़ा भारी संघ निकाला और साधर्मी भाइयों को सुवर्ण सुद्राएं पहरावणी में दी । आपके वहाणवट का व्यापार होने से वे वहाणवट नाम संस्करण हुआ उसका ही अपभ्रंश भणवट हुआ है।
कई भाटों ने भणवटों के लिये एक कल्पित ख्यात बना रखी है कि सं० ६१० में पाटण के चौहान भूरसिंह ने राजा का रोग मिटा कर जैन बनाया उस भूरसिंह की संतान भणवट कहलाई। पर यह कथन सर्वथा मिथ्या है कारण अव्वल तो पाटण में किसी समय चौहानों का राज ही नहीं रहा है और न पाटण की राजधानी में भूरसिंह नाम का कोई राजा ही हुआ है।
सुराणा जाति की एक समय इतनी वृद्धि हुई थी कि इस जाति के लोग धर्म की इतनी श्रद्धा वाले लोग -१५०२
For Private &Personal use only जैन जातियों की उत्पति का वर्णन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
Bibrary.org