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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १५२८-१५७४ हुए थे कि उन सुराणों के नाम का एक गच्छ का भी प्रादुर्भाव हुश्रा जिसका ८४ गच्छों में सुराणां गच्छ का भी नाम है सुराणा गच्छ का शुरु ले ही इतिहास नागोर के महात्मा गोपीचन्दजी के पास है उन्हों के पास की वंशावलियों में जैसे धर्मघोष सरि ने सुराणों, सांखलों एवं भणवट के पूर्वजों को उपदेश देकर जैन बनाये हैं वैसे नाहरों के पूर्वजों को भी प्राचार्यश्री धर्मघोषसूरि ने सं० ११२६ में मुदियाड ( मुग्धपुर ) के ब्राह्मणों को उपदेश देकर जैन बनाया बाद में नारा की संतान नारा कहलाई। पर नागपुरिया तपागच्छ वाले अपनी वंशावलियों में नाहर जाति के पूर्वजों को नागपुरिया तपागच्छ के प्राचार्यों ने बनाया बतलाते हैं शायद पूर्व जमाने में महात्मा लोग अपनी वंशावालियों की बहियों को अपने सम्बन्धी अन्य गच्छियों को मुशालादि में तथा बेटी की शादी में पहरावणी में भी देदिया करते थे जैसे सांढेरा गच्छ के महात्मा ने अपने १२ जातियों के नाम लिखने की बदियों को किसी प्रसंग पर आसोप के खरतरगच्छीय महात्माओं को दे दी तब से ही उन ५२ जातियों के गौत्र खरतरगच्छ के महात्मा लिख रहे हैं। दूसरा एक कारण और भी है कि पूर्व जमाने में मन्दिरों के आस पास में रहने वाले गृहस्थों को मंदिरों के गष्टिक ( सभासद ) बनाये जाते थे उसका अर्थ तो इतना ही था कि नजदीक घर होने से वे मंदिर की सार संभाल ठीक तरह से कर सकेंगे। फिर मन्दिर किसी भी गच्छके लोगों ने बनाया हो और सभासद बनने वाले किसी गच्छ के आसायों के प्रतिबोधक श्रावक क्यों न हो ? पर वहां तो केवल मन्दिर की सार संभाल का ही उद्देश्य था एर काफी समय निकल जाने से जिस गच्छ के प्राचार्यों ने उन सब सभासदों (गोष्टिकों ) पर अपने प्राचार्यों में तुम्हारे पूर्वजों को प्रतिबोध देकर जैन बनाये थे। इस प्रकार अपना हक जमा दिया करते थे। हां, वे गाटिक बनने वाले शुरु से या एक दो या चार पुश्त तो इस बात को जानते थे कि हमारे पूर्वजों को प्रतिबोध देने वाले आचार्य अमुक गच्छ के थे। तथा हम अमुक गच्छोपासक श्रावक हैं पर समयाधिक व्यतीत हो जाने से तथा अधिक परिचय के कारण अथवा उनके साथ प्रतिक्रमणादि क्रिया कांड एवं तप व्रतादि करने से उन लोगों के संस्कार भी ऐसे पड़ गये इससे इतनी गड़बड़ मच गई कि कई लोग तो अपने प्रतिबोधक आचार्य एवं उनके गच्छ को भी साफ २ भूल ही गये । इतना ही क्यों ? पर कभी-कभी गच्छों के वाद विवाद का मौका आता है तब अज्ञानी लोग उनके पूर्वजों को मांस-मदिरादि छुड़ाने वालों के अवगुण बाद बोल कर उनकी आशातना करके कृतघ्नी रूप वपाप की गठरी शिर पर उठाने को भी तैयार हो जाते हैं । अथवा कई मूल जातियों से शाखाएँ निकलती है उसमें भी कारण पाकर ऐसे नामों का होना पाया जाता है। एक शिलालेख में नाहर चित्रावल गच्छ के होना भी लिखा है। नाहरों को चाहिये कि वे अपनी जाति की उत्पत्ति का ही पता लगा कर कृतार्थ बनें। १-नागपुरिया तपागच्छ-इस गच्छ में चन्द्रसूरि, वादिदेवसूरि, पद्यसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, गुणसुन्दरसूरि, विजय शिखरसूरि आदि महाप्रभाविक आचार्य हुए हैं जिन्होंने इधर उधर बिहार कर हजारों नहीं पर लाखों मांस मदिरा दुर्व्यसन मेदियों को आत्मीय चमत्कार एवं सदुपदेश देकर जैनधर्मी बना कर महाजन संघ की खूब ही वृद्धि की । उन श्रावकों के कई-कई कारण पाकर जातियाँ बन गई जिसके नाम ये हैं:-- १-गोलाणी, त्वलखा भुतेड़िया । २–पीपाड़ा, हीरण, गोगड़, शिशोदिया। ३-रूलीवाल वेगाणी ४-हिंगड़-लिंगा। ५-रामसोनी। ६-झाबक, झमड़ । ७-छलाणी, छजलाणी, घोड़ावत, 15-हीराऊ केलाणी । -गोखरू, चौधरी। १०-जोगड़ । ११-छोरिया, सामड़ा । १२-लोढ़ा । १३-पूरिया, मीठा । १४-नाहर । १५-जड़िया इत्यादि इन ऊपर लिखी जातियों की उत्पत्ति एवं धर्म कार्यों की नामावली इनके कुल गुरुओं के पास में मिलती है। इनके अलावा श्री श्रीमाल, हींगड़, लिंगा नक्षत्र जाति की नामावली भी इन पोशालों वाले कहीं कहीं लिखते हैं किन्तु यह जातियाँ उपकेशगच्छाचार्य प्रतिबोधित पर ऊपर लिखेनुसार मन्दिरों के गोष्टिक बनने से या वंशावलियों के इधर की उधर चली जाने से या अधिक परिचय के जैन जातियों की उत्पति का वर्णन १५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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