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सोमवाल में० ११२१ से १९७६ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन) कज्जल नाम का भावुक, अत्यन्त होनहार एवं तेजस्वी था। सूरीश्वरजी ने दीक्षानंतर कज्जल का नाम मूर्तिविशाल रख दिया। कालान्तर वहां से विहार कर एक चतुर्मास डमरेलपुर, दूसरा वीरपुर तीसरी उच्चकोट; इस प्रकार कुल चार चातुर्मास सिंध प्रान्त में करके प्राचार्यश्री ने सिंध की जनता में धर्म का खूब उत्साह फैलाया। इस प्रान्त में विहार करने वाले मुनियों की सराहना करते हुए उनको धर्मप्रचार के कार्यों में और भी अधिक प्रोत्साहित किया। योग्य मुनियों को योग्य पदवियों से सम्मानित कर उन की कदर की । पश्चात् आपने कच्छधरा में प्रवेश किया। एक चातुर्मास भद्रावती में सानन्द सम्पन्न करके
आपने सौराष्ट्र प्रान्त की ओर पदार्पण किया क्रमशः विहार एवं धर्मोपदेश करते हुए तीर्थाधिराज श्रीशत्रुजय को तीर्थयात्रा की। और आत्म शान्ति के परम निर्वृत्तिमय परमानंद का अनुभव करने के लिये प्राचार्यश्री ने कुछ समय तक यहां पर स्थिरता थी। पश्चात गुर्जर भूमि को पावन करते हुए क्रमशः भरोंच नगर की ओर पदार्पण करना प्रारम्भ किया।
भरोंच पट्टन में आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों ने श्रीसंघ के हृदयों में धर्मोत्साह की पावरफुल बिजली का प्रादुर्भाव कर दिया । सेठ मुकुन्द तो श्राचार्यश्री के दर्शन के लिये बहुत ही उत्कण्ठित एवं लालायित था अतः सूरिजी के नगर प्रवेश महोत्सव में ही नव लक्ष द्रव्य व्यय कर शासन की प्रभावना का वास्तविक लाभ उठाया। पश्चात् सेठ मुकुन्दजी अपनी पत्नी एवं पांच पुत्रों को साथ में लेकर सूरीश्वरजी की सेवा में उपस्थित हुए । आचार्यश्री के अतुल उपकार को व्यक्त करते हुए सेठजी ने कहा-प्रभो! यह आपका लघु श्रावक है। इन्होंने व्यवहारिक एवं धार्मिक विद्या का भी आपकी कृपासे अभ्यास शुरू कर दिया है है।धर्म कार्यों में मेरे साथ अत्यन्त प्रेम पूर्वक भाग लेता है। प्रभु पूजा किये बिना तो इसकी मां भी अन्न, जल महण नहीं करती है । पूज्य गुरुदेव ! आपकी इस अनुग्रह पूर्ण दृष्टि से ही यह चरण सेवक धन, जन, पुत्र परिवारादि से पूर्ण सुखी है । भगवान् ! आपने हमें अन्धकारमय मार्ग से पृथक कर सुखमय सड़क के मार्ग पर लगाया । अापके इस असीम उपकार का बदला हम कैसे दे सकेंगे ! यदि हम इस ऋण से कुछ अंशों में भी उऋण हो सकें तो अपने जीवन को सार्थक सममेंगे । सूरिजीने कहा-महानुभाव ! आप बड़े हो भाग्यशाली हैं। ये सब पूर्वभव के संचय किये हुए पुण्य के पुद्गलों का ही उदय कालीन प्रभाव है । वे प्दय तो होने वाले ही थे पर जैनधर्म की पवित्र शरण में आने के पश्चात ही । श्रेष्टिवयं ! इस प्रवल पुण्यो. दय से जो पुण्यानुबन्धी पुण्य का सञ्चय हो रहा है उसमें मैं तो केवल निमित्त कारण ही हूँ। उपादान कारण तो आपके ही उर्जित किये हुए पुण्य हैं फिर भी आपके इन कृतज्ञता सूचक भावों से आपको धन्यवाद देता हूँ और शास्त्रानुकूल सप्त क्षेत्रों में द्रव्य का सदुपयोग कर लाभ लेते रहने के लिये प्रेरित करता हूँ । पुण्यात्मन् ! यदि यही पुण्य राशि अन्य अवस्था में उदय होती तो पुण्योपार्जन के बदले मिथ्यात्व सन्चय का कारण बनकर आपको अनंत संसारी बना देती किन्तु मुक्ति-मोक्ष नजदीक होने से अपने श्राप जैनधर्म ग्रहण करने की पवित्र भावनाओं का उदय किया और आपके जीवन को एकदम आदर्श बना दिया । मुकुन्द ! मैंने आपको उपदेशपुर में जो उपदेश दिया था-याद है ! मुकन्द ने कहा-पूज्यवर आपके उपदेश को भी कभी भूला जा सकता है ? मन्दिर तो मैंने कवका ही तैय्यार करवा दिया है । जिनायल की प्रतिष्ठा के लिये आपश्री की बहुत ही प्रतीक्षा की किन्तु श्राप तो परोपकारी महात्मा ठहरे अतः धर्म प्रचार में संलग्न आपश्री के दर्शनों का लाभ बहुत प्रतीक्षा के पश्चात् भी न मिल सकने के कारण उपाध्याय. पूरीश्वरजी भरोंच नगर में
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