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________________ वि० सं० ७२४-७७८] ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सेठ मुकंद ने आठ दिन तक उपफेशपुर में स्थिरता कर अष्टान्हिका महोत्सव, ध्वजारोहण, पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्यादि धार्मिक कृत्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । पश्चात् सूरिजी को भरोंच पधारने की प्रार्थना कर संघ को वापिस लेकर भरोंच लौट आये । इस प्रकार आचार्य श्री ने अनेक भव्यों को धर्म मार्ग में प्रारूढ़ कर जैनधर्म का गौरव बढ़ाया ।। उपकेशपुरीय श्रीसंघ के अत्याग्रह से सूरीश्वरजो ने वह चातुर्मास उपकेशपुर में करना निश्चित किया । इस चातुर्मास से उपकेशपुर में पर्याप्त धर्म प्रभावना हुई । पश्चात् आचार्यश्री मरुधर के छोटे बड़े प्रामों में धर्मोद्योत करते हुए मेदपाट की ओर पधारे । पट्टावलीकार लिखते हैं कि-देवपट्टन के आस पास दस हजार क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उन नूतन श्रावकों के लिए आपने पहला चातुर्मास देवपट्टन में किया। इससे उन क्षत्रियों की भावनाएं - जो अभी नवीन जैन हुए थे दृढ़ हो गई। दूसरा चित्रकूट नगर में चातुर्मास किया जिससे जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई । नूतन क्षत्रिय जैन भी, जैनधर्म के पक्के रंग में रंग गये । तत्पश्चात् आवन्तिका प्रदेश की ओर विहार कर आपने एक चातुर्मास उज्जैन में किया और क्रमश: बुन्देलखण्ड और चन्देरीनगरी के चातुर्मासों को समाप्त करके मथुरा की ओर पदार्पण किया । मथुरा में बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया और श्रीसंघ के प्राग्रह से वह चातुर्मास भी मथुग में ही कर दिया । चातुर्मासानंतर वहां से विहार कर भगवान् पार्श्वनाथ के कल्याणभूमि की स्पर्शना करनी थी अतः बनारस की ओर पदार्पण किया। आस पास के तीर्थों की यात्रा करके वह चातुर्मास बनारस में ही कर दिया। आपके विराजने से वहां जैनधर्म की अच्छी जागृति हुई । चातुर्मासानंतर वहां के इर्षा युक्त ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में परास्त कर ११ स्त्री पुरुषों को भगवती जैन दीक्षा दी। फिर आपने पंजाब की और प्रवेश किया। पजाब प्रान्त में आपके बहुत से साधु पहिले से हो धर्म प्रचार करते थे अतः उनको श्राचार्यश्री के आगमन के हर्ष पूर्ण समाचारों से बहुत ही प्रसन्नता हुई । इधर आचार्यश्री ने भी श्रावस्ती नगरी में पदार्पण कर पञ्जाब प्रान्त में विचरण करने वाले सब साधुओं की श्रमण सभा की । उक्त सभा में पंजाब प्रान्तीय श्रमण वर्ग एकत्रित हुआ और आचार्यश्री ने आये हुए साधुओं के धर्मप्रचार की प्रशंसा करते हुए उनके उत्साह वर्धन के लिये योग्य मुनियों को योग्य पदवियां प्रदान की । इस प्रकार उनके उत्साह को विशेष बढ़ाने के लिये स्वयं प्राचार्यश्री ने भी दो चातुर्मास पन्जाब प्रान्त में ही कर दिये । एक तो श्रावस्ती और दूसरा शालीपुर । इस प्रकार पाञ्चाल प्रान्त में दो चातुर्मास करके आचार्यश्री सिंध की ओर पधारे। सिंध प्रान्त में भी आपके शिष्य समुदाय धर्मप्रचार कर रहे थे अतः आचार्यश्री के आगमन के समाचारों से उनके हृदय में नवीन क्रान्ति एवं स्फूर्ति पैदा होगई। क्रमशः विहार करते हुए सूरीश्वरजी जब गोशलपुर पधारे तो वहाँ की जनता के हर्ष का पार नहीं रहा। राव गोसल के पुत्र राव अासलादि ने सूरीश्वरजी का बड़े ही समारोह पूर्वक स्वागत किया। राव आसल बड़ा ही कृतज्ञ था, वह जानता था कि आज हम जो इस उच्च स्थिति पर पहुँचे हैं वह सब स्वर्गीय आचार्यश्री देवगुप्तसूरि का ही प्रताप है । अतः राव अासल ने अत्यन्त कृतज्ञता एवं विनय पूर्ण शब्दों में प्रार्थना की-प्रभो ! एक चातुर्मास का लाभ हम अज्ञानियों को देकर कृतार्थ करें ? आचार्यश्री ने स्वीकार करके वहाँ विराजने से गोसलपुरीय जन समाज में धर्म प्रेम की अपूर्व लगन लग गई। कई भावुक मुमुक्षु तो आचार्यश्री के पास में दीक्षा लेने को तैयार होगये । चातुर्मासानंतर सब दीक्षार्थियों को श्राचार्यश्री ने भगवती दीक्षा दी। उक्त दीक्षार्थियों में एक ११२० दश हजार अजैनों को जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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