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वि० सं० ७२४-७७८ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
श्री जयकुशल से मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ का संघ निकाल कर यात्रा की पैंतालीस भागमों को लिखवा कर ज्ञान भण्डार की स्थापना की। पूज्य गुरुदेव ! अब आपश्री के पधारने से भी मेरे मन के मनोरथ सफल ही होंगे ।
सूरिजी - बतलाइये, आपकी क्या मनो भावना है ।
मुकुद - प्रभो ! एकतो मैंने सम्मेतशिखर की यात्रा का संघ निकालने के लिये एक करोड़ रूपये निकाल रक्स्चें हैं उनका सदुपयोग होना और दूसरा मेरे इन पांच पुत्रों में से किसी एक की आत्मा का कल्याणा करना । सूरिजी - तो क्या पुत्र को दीक्षा दिलाना चाहते और श्राप स्वयं नहीं लेना चाहते ।
मुकुन्द - पूज्यवर ! मैं वृद्ध हो गया हूँ अतः श्रन्तराय कर्मोदय से किंवा वृद्धवस्था जन्य अशक्तता से दीक्षा का सचा लाभ उठाने में असमर्थ
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सूरिजी - दीक्षा में कौनसा सिर पर भार लावना है ? दीक्षा का एक मात्र ध्येय तो आत्मकल्याण करने का ही है और वह आपसे इस अवस्था में भी हो सकेगा । कारण, कहा है कि
पच्छावि ते पयाया खिप्य ं गच्छन्ति अमर भवणाई ।
जेसि पिओ तवो संजभो रवंति अ बम्भनेरं च ॥"
जब वृद्ध हुए हो तो एक दिन मरना तो अवश्य ही है फिर चारित्रावस्था में मरना तो श्रात्मा के लिये विशेष हितकर ही है । शास्त्रकार तो यहाँ तक फरमाते हैं कि जिनको तप, संयय, क्षमा, ब्रह्मचर्यादि गुणप्रिय हों ऐसे व्यक्ति वृद्धावस्था में भी दीक्षित हों तो देवलोक तो सहज ही में प्राप्त कर सकते हैं। मुकुन्द ! पूर्व जमाने में भी एक मुकुन्द नाम ब्राह्मण ने अपनी वृद्धावस्था में जैन दीक्षा ली थी और वे वृद्धवादीसूरि के नाम से जैन संसार में विश्रुत हुए । उन्होंने अनेक राज सभा त्रों में वादियों को परास्त करने से ही वादी कहलाये । जब उन्होंने अपनी इस अवस्था में भी पठन पाठन का क्रम प्रारम्भ रखा तो एक मुनि ने उपहास जनक शब्दों में उन्हें व्यङ्ग किया --- " इस वृद्धावस्था में पढ़ करके क्या तुम मूशल फूला - वेंगे ?" इस अपमान जनक शब्दों से अपमानित हो उन्होंने सरस्वती का श्राराधन प्रारम्भ किया और काला न्तर में मूशल को नवीन पल्लवों से पल्लवीत कर उन्हें ( तानामारनेवाले मुनियोंको ) प्रत्यक्ष में लज्जित कर दिया | अतः वृद्धावस्था का विचार करके आत्मकल्याण के मार्ग से वंचित रहना श्रात्म गुण विधातक है । मुकुन्द ! मुकुन्द, इस शब्द में ही बड़ा चमत्कार भरा हुआ है अतः अपने मुकुन्द नाम को सार्थक कर आत्मकल्याण वास्तविक श्रेय को सम्पादन करें ।
मुकुन्द - ठीक है गुरुदेव ! इस पर तो में गम्भीरता पूर्वक विचार करूंगा ही किन्तु पहले मेरे उक्त दोनों मनोरथों को तो सार्थक कर दीजिये ।
पास ही मुकुन्द की पत्नी एवं पांचों पुत्र बैठे हुए सेठजी के एवं आचार्यश्री के वार्तालाप को स्थिर चित्त से सुन रहे थे। सब शांत, निश्चल एवं मौन थे किन्तु उन सबों के चेहरे पर अलौकिल प्रभा की प्रत्यक्ष रेखा उनके मानसिक आनन्द की सूचना कर रही थी । सूरिजी ने सेठजी के उक्त वाक्य का "जहा सुहं" शब्द से प्रत्युत्तर दिया । मुकुन्द श्रादि आचार्यश्री के चरण कमलों में वंदना कर अपने घर चले आये । कुछ दिनों के पश्चात् सेठ मुकुन्द एवं भरोंच नगर के श्रीसंघ ने चातुर्मास की प्रार्थना की । श्राचार्य भी ने भी अनुकूलता एवं लाभ का कारण देख कर श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार कर ली । बस सबकी
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मुकन्द सकुटम् दीक्षा के उम्दीदवार
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