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________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गुरुदेव ! इस नगर के राजा बड़े ही अज्ञानी हैं । बिना इन्साफ किये ही मुझे भृत्यु दण्ड दिया अतः अन्त समय में एक मुनि के सिखाये हुए नवकार मन्त्र का ध्यान करने से मैं मरकर यक्षयोनि में पैदा हुआ। देव योनि में पैदा होने के पश्चात् मुझे बहुत ही क्रोध आया और उसी का बदला मैंने इस रूप में लिया । आपश्री ने हम सब देवों का सत्कार किया है इसलिये मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुश्रा हूँ। यह देव योनि भी आप महात्माओं की कृपा से मिली है अब आप आज्ञा फरमा-मैं क्या करूँ ? सूरिजी ने कहा-देव ! नवकार मंत्र का ऐसा ही प्रभाव है । जो इस पर श्रद्धा विश्वास रक्खे तो देवयोनि ही क्या ? मोक्ष का अक्षय सुख भी सम्पादन किया जा सकता है । दूसरा किसी व्यक्ति ने अज्ञानता से किसी का बुरा भी किया हो तो उसका बदला लेने में गौरव नहीं अपितु उसको क्षमा करने में ही गौरव है । तीसरा-एक व्यक्ति के अज्ञानता पूर्ण अपराध के लिये सारे नगर के नागरिकों को कष्ट देना कितना जबर्दस्त अन्याय है ? खैर, अब आप शान्त होकर उपद्रव को शान्त करें। यदि आप अपनी देवयोनि का सदुपयोग करना चाहते हो तो कई स्थानों पर होने वाले देव देवियों के नाम पर हजारों जीवों के वध को रोकें । उन जीवों के शुभाशीर्वाद एवं दया. मय धर्म के प्रभाव से आपका भवान्तर में भी आपका कल्याण हो । सूरिजी का उक्त हितकर उपदेश यक्ष को बहुत ही रूचिकर ज्ञात हुआ। उसने आचार्यश्री के उपदेश को शिरोधार्य कर आगे से ऐसे आकार्य नहीं करने का सूरिजी को विश्वास दिलाया । पश्चात् यक्ष सूरिजी को वन्दन कर स्व स्थान चला गया। और कह गये कि जब आप याद करेंगे सेवा में हाजिर हूँगा । - प्रातःकाल सूरीश्वरजी ने अपने व्याख्यान की विस्तृत परिषदा में राजा प्रजा को इस प्रकार कहा-इस उपद्रव का मुख्य कारण राजा का प्रमाद ही है कारण, वे बिना परीक्षा किये हुए अपने अनुचरों के विश्वास पर कभी २ निर्देषी को दोषी बना कर प्राण दण्ड जैसे भयङ्कर दण्ड भी दे देते हैं । आपके यहां के उपद्रव का भी यही कारण है इस लिये भविष्य के लिये न्याय होना चाहिये। मैं आप लोगों को विश्वास दिलावा हूँ कि आज से ही यह उपद्रय शान्त हो जायगा । बस, सूरीश्वरजी के उक्त शान्ति प्रदायक वचनों को सुन कर सब के, हृदय में शान्ति का अपूर्व प्रवाह, प्रवाहित होने लगा। राजाने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सूरीश्वरजी के चरण कमलों में जैन धर्म को स्वीकार कर लिया 'यथा राजा तथा प्रजा' की पुक्तयनुसार और भी कई भद्रिकों ने श्रात्मकल्याण की ऊचतम अभिलाषा से जैनधर्म को अङ्गीकार किया। इस तरह श्राचार्य श्री के अपूर्व प्रभाव से जैनधर्म की अपूर्व प्रभावना हुई। ___एक दिन राजा जयकेतु ने सूरिजी की सेवा में आकर निवेदन किया-पूज्य गुरुदेव ! आपने जो सभा में फरमाया था कि उपद्रव का कारण निर्दोषी को दोषी समझ कर दण्ड देने का है-सो ठीक है। मुझे उस अपराध की अब यथावत् स्मृति हो गई है पर मेरे इस जीवन में इस प्रकार की कितनी ही भूलें हुई होंगी। प्रभो ! अब उसके लिये ऐसा कोई सफल उपाय बताइये जिससे, मैं इन पापों से बच सक् । वास्तव में राज्येश्वरी नरकेश्वरी ही है ! इस पर सूरिजी ने कहा-राजेश्वरी होना बुरा नहीं है पर उसमें सावधानी रखना नितान्त आवश्यक है। यदि राजा चाहें तो अपनी अत्मा के साथ अनेक अन्यआत्माओं का भी कल्याण कर सकता है । पूर्वकालीन अनेक ऐसे राजा हुए है कि जिन्होंने राज्यतन्त्र चलाते हुए अपनी आत्मा के साथ अनेक दूसरों की आत्माओं का भी कल्याण किया है । अब आपके लिये भी यही उपाय है कि आप जनता को भलाई और धर्म की प्रभवना के लिये जी जान से प्रयत्न करें । राजा प्रजा का पालन करने वाले ११४६ सोपार पट्टन में यक्ष का उपद्रव Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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