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________________ आचार्य कक्कथरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १९७८-१२३७ में श्राप सिंध प्रदेश में पधारे । दो चातुर्मास सिंध में करके सर्वत्र आपने धर्म प्रचार को बढ़ाया बाद में पंजाब को पावन बना कर दो चातुर्मास पजाब में भी कर दिये । पश्चात् श्राप कुरु की ओर पधारे । हस्तनापुर की स्पर्शना कर वह चातुर्मास आपने माथुरा में श्राकर किया। उस समय मथुरा में जैसे जैनियों की चनी श्राबादी थी वैसे बौद्धों की भी बहुत से मन्दिर, संधाराम और मठ थे। उक्त मठों में सैंकड़ों बौद्ध. भिक्षु वर्तमान रहते थे। प्राचार्यश्री कक्कसूरि ने मथुरा में चातुर्मास कर जैनधर्म की विजय वैजन्ती सर्वत्र फहरादी। सूरिश्वरजी ने वहां शा. करमण के बनवाये हुए महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कर बाई । १३ नर नारियों को जैन धर्म में दीक्षित कर करके जैन धर्म की खब प्रभावना की। ___ तत्पश्चात् सूरीश्वरजी म. मथुरा से बिहार कर क्रमशः प्राम नगरों में होते हुए अजयपुर नगर में पधारे । वहां के श्रीसंध ने आपका अच्छा सत्कार किया। वहां से अपने मरुभूमि की ओर पदार्पण किया । शाकम्भरी, मेदिनीपुर हंसावली, पद्मावती, नागपुर, मुग्धपुर होते हुए श्राप रुनावती नगरी में पधारे । वहां सुचन्ति गौत्रीय शा. गोल्हा के पुत्र नारा को दीक्षा दी । वहां से आप खटकुम्प नगर पधारे। वहां के श्री संघ ने आपका शानदार जुलूस के साथ स्वागत किया । संघ के सत्याग्रह से चातुर्मास भी आपने वहीं पर कर दिया । खटकुम्प नगर के चातुर्मास में धर्म का खूब उद्योत हुआ। बाद आप बिहार कर माण्डव्य पुर होते हुए उपकेशपुर पधारे । सूरिजी महाराज को इस भ्रमन में करीब बीस वर्ष लग चुके थे। इस भ्रमन काल में आपने जैन धर्म की आशातीत प्रभावना की। आपने अपने जीवन काल में अनेक दिग्गज वादियों से भेंट कर उन पर अमिट प्रभाव जमा दिया। इनता ही क्या पर जिस अहिंसा का प्रचार अनेक उपदेशकों से होना मुश्किल था उसी अहिंसा का प्रचार हिंसा के कट्टर हिमायतियों के हाथ से हो जाना क्या कम महत्व की बात है ? इसका सम्पूर्ण श्रेय हमारे आचार्य श्री कवकसूरीश्वरजी म. को ही है। __आचार्यश्री कक्कसूरि जिस समय कोकण में विहार कर रहे थे उस समय सौपारपट्टन में एक यक्ष का महान् उपद्रव हो रहा था। इस उपद्रव के कारण नगर भर में त्राहि २ मच गई वहां के राजा जयकेतु ने एक सभा की और कहा-सुख शान्ति के समय तो प्रत्येक धर्म वाले, धर्म गुरु जाप जप करवाते हैं, वरणी बैठाते हैं, शान्ति करवाते हैं तब इस प्रकार की अशान्ति के समय वे धर्म और धर्म गुरु कहां चले गये हैं ? शान्ति पाठ व जाप जप कहां चले गये हैं ? मैं तो यह सब धर्म का ढोंग ही समझता हूँ । यदि किसी धर्म में सच्चाई एवं चमत्कार हो तो इस उपद्रव के समय में वह बतावे-मैं उसी धर्म को स्वीकार कर उस धर्म का परमोपासक बन कर उसी धर्म का प्रचार वडाऊँगा।। बस, प्रत्येक धर्म वाले अपने २ महात्माओं को बुलवा कर धर्मानुष्ठान करवाने लगे। जैन लोग इस दौड धूप में कब पीछे रहने वाले थे; उन्होंने भी अपने महान् प्रतापी आचार्यश्री कसूरि को बुलाया कक्क सूरीश्वरजी का बड़े ही समारोह पूर्वक नगर प्रवेश महोत्सव किया । जब ब्राह्मणादि वर्गों के जप, जाप, यज्ञानुष्ठान वगैरह कार्य समाप्त हुए तब जैनियों की ओर से भी अष्टान्हिका महोत्सव के अन्त में बृहत् शान्ति स्नात्र पढ़ाई गई ! इसका जुलूस इतना जोरदार निकाला गया कि सब लोग आश्चार्यान्वित होगये । राजा जयकेतु वगैरह भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए । सूरिजी के यशः कर्म का उदय था अतः इधर शान्ति स्नात्र पढ़ाई और उधर रात्रि में यक्ष, आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होकर कहने लगा---पूज्य आचार्यश्री का व्याख्यान ११४५ Jain Education in xxonal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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