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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
स्व धर्म का प्रचार करते थे आचार्यश्री तत्काल वहां जाकर शास्त्रीय युक्तियों के युक्तियुक्त प्रमाणों से वहां का जन समाज को पुनः अपनी ओर आकर्षित कर लेते । इस प्रकार होते रहने के कारण शिव पण्डित के हृदय में जो २ आशाएं थी वे सब शनैः शनैः निराशा के रूप में परिवर्तित होने लगी। अन्त में परिभ्रमन करते हुए सूरिजी और शिवै दोनों का एक स्थान पर मिलाप होगया। प्राचार्य ने शिव पण्डित को शास्त्रार्थ करने के लिये चेलेज दिया । उसने पण्डित के अभिमान में उसे स्वीकृत का राज सभा में वाद विवाद करने का निश्चय किया। निर्धारित किये हुए दिन को राज सभा में दोनों का यज्ञ-समर्थन एवं यज्ञोत्थापन विषय में शास्त्रार्थ हुआ। अन्त में पण्डितजी को अहिंसा देवी की पवित्र गोद का श्राश्रय लेना ही पड़ा। उनके हृदय में स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रति अपूर्ण गौरव पैदा हो गया। अपने किये हुए खण्डन का उन्हें रह २ कर पश्चाताप होना लगा । आचार्य श्री कक्कसूरिजी प्रतिमा के सामने उन्हें भी एकदम नतमस्तक होना पड़ा। इससे सूरीश्वरजी की प्रतिष्ठा महाराष्ट्र प्रान्त में बहुत दूर तक फैल गई । इस प्रकार दक्षिण में पधारने से शासन रक्षा रूप महालाभ प्राचार्यश्री को प्राप्त हुश्रा । आपने तीन चातुर्मासे महाराष्ट्र प्रान्त में किये । इस दीर्घ अवधि के बीच आपश्री ने कई महानुभावों को दीक्षा देकर उनकी आत्माओं का कल्याण किया । कई मंदिरों की प्रतिष्ठाएं करवा कर जैनधर्म को दृढ़ एवं स्थिर किया। मांसाहारियों को अहिंसा धर्मानुयायी बना जैन धर्म की खूब ही प्रभावना की।
तत्पश्चात् वहां से विहार कर क्रमशः विदर्भ प्रान्त में परिभ्रमन करते हुए आचार्य श्री ने कोकण को पावन किया। वहां की जनता को जैनधर्म का उपदेश देकर जैनधर्म का आशातीत उद्योत किया । सोपार पट्टन में चातुर्मास करके धर्म की नींव को दृढ़ एवं स्थायी बना दिया। चातुर्मास के बाद लाट प्रान्त में सूरीश्वरजी पधारे भरोच, स्तम्भपुर, वटपुर करणावती, खेटकपुरादि नगरों में परिभ्रमन करते हुए सौराष्ट्र प्रान्त में पधार कर आपश्री ने परम पावन सिद्धगिरि की यात्रा की। आत्म शान्ति का अनुपम आनंद प्राप्त करने के लिये आपने कुछ समय तक वहां पर विश्रान्ति ली । इस अवधि के बीच मरुधर प्रान्त से सिद्धागेरि की यात्रा के लिये एक संघ आया और एक और कच्छ के भावुक भी यात्रार्थ संघ लेकर आये । दोनों प्रान्तों के श्रीसंघों ने आचार्यश्री को अपने २ प्रान्तों में पधारने के लिये आग्रह भरी प्रार्थना की इस। हालत में सूरीश्वरजी असमंजस में पड़ गये कि कच्छ की और विहार करूं या मरूभूमि की और १ इसी विचार में निमग्न बने हुए आचार्यश्री के पास में रात्रि को देवी सच्चायिका ने आकर परोक्ष रहकर वंदन किया। प्राचार्यश्री ने धर्म लाभ देकर अपने विहार के लिये देवी से उचित सलाह मांगी। देवी ने कहा प्राचार्य देव ! मरूभूमि में पधारने से हम तो कृतार्थ अवश्य होवेंगे पर आपको ज्यादा लाभ कच्छ भूमि की भोर पधारने से ही प्राप्त होवेगा । सूरिजी ने भी देवी के परामर्शानुसार कच्छ प्रान्त की और विहार करने का निर्णय कर लिया । बस, दूसरे दिन कच्छ संध की विनती को स्वीकार प्राचार्यश्री ने उधर ही बिहार कर दिया । क्रमशः सौराष्ट्र में भ्रमन करते हुए श्राप कच्छ में पधारे । उस प्रदेश में परिभ्रमन कर आप भदेश्वर में पधारे । अापका चातुर्मास भी वहीं पर हुश्रा । आपके त्याग वैराग्य मय व्याख्यान से प्रभावित हो कई महानुभाव संसार से विरक्त हो गये । उक्तवैरागियों में एक श्रेष्ठि गोत्रीय शा. लादूक के पुत्र देवसी जो कोट्याधीश था-वल दो मास की विवाहित पत्नी का त्याग कर दीक्षा के लिये उद्यत हो गया। चातुर्मास के बाद शा.देवसी श्रादि दश नर नारियों ने दीक्षा लेकर सूरीश्वरजी के पास में आत्म कल्याण किया । बाद ११४४
सूरिजी का दक्षिण में बिहार
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