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आचार्य रत्नपभसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ८००-८२५
भी अभी तक मैंने कुछ भी आत्म कल्याण सम्पादन नहीं किया इत्यादि जब भीमदेव अपने घर पर आया तब सब हाल अपने माता पिता को कहा उन्होंने बहुत फिक्र किया और कहा आइन्दा से तुम ऐसे समय कभी बाहर नहीं जाना । इत्यादि पर भीम के हृदय में वैराग्य ने घर बना लिया !
इधर लब्ध प्रतिष्ठित धर्म प्राण प्राचार्य सिद्धसूरजी भ्रमन करते करते शंखपुर नगर में पधार गये श्रीसंघ ने आपका बड़े ही धाम धूम से नगर प्रवेश कराया। आचार्यश्री ने मंगलाचरण के पश्चात् भव भंजबी देशना दी जिसमें बतलाया कि
"असख्यं जीवियं भापमायए जरोवणीयस्सहु णत्थि ताणं ।
एवं वियाणाहिं जणे पमत्त, कन्न् वि हिंसां अजय गहिति ॥२॥" सप्तार की तमाम-चिजों तुटने के बाद किसी न किसी तरह से मिला दी जाती हैं। पर एक आयुष्य ही ऐसी चीज है कि इसके तूटने पर पुनः नही मिलता है। जिस सामग्री के लिए सुरलोक में रहें हुए सुरेन्द्र भी इच्छा करते है वह सामग्री आप लोगों को सहज ही में मिल गई है। अब उसका सदुपयोग करना आपके ही हाथ में है । यदि कई लोक बाल युवक एवं वृद्ध पना का विचार करते है तो यह निरर्थक है । कारण सब जीव अपने २ कर्म पूर्व जन्म में ही ले आये है उससे थोड़ा सा भी न्यूनधिक हो नहीं सकता है। कई लोग स्त्री पुत्रादि के मोह की पास में जकड़े हुए है। उसका रक्षण पोषण में अपना कल्याण भूल जाते हैं पर उनको यह मालुम नहीं है कि भावान्तर में जब कर्मोदय होंगें उस समय वे लोग जो जिन्हों के लिये में कर्मोपार्जन कर रहा हूँ मेरे दुःख में भाग लेगा या नहीं ? जैसे कि
तेणे जहाँ सधिं महे गहीए, सकरमुणा किच्चइ पाव कारी ।
एवं पया पेच्चइहंच लोय, कडाण कम्माण नमोक्खअत्थि ॥२॥ एक चोर किसी साहूकार के यहां चोरी करने को गया था उसने भीत फोड़ी पर वह ऐसी तर्कीब सेकि अष्ट कली फूल की तरह फोड़ी थी पर इतने में घरधणी जाग गया और हाथ में एक रस्सी लेकर दम्पति खड़े हो गये ज्योंहि चोर ने पैर अन्दर डाला त्योंहि सेठ सेठानी ने रस्सा से खुब जोर से बांध दिया चोर न तो अन्दर आ सका और न बहार ही जा सका जब सुर्योदय होने में थोड़ा समय रहा तो चोर की औरत और माता उसको सोधने के लिये गई सेठ की भीत में फसा हुआ चोर को देखा अतः सोचा की यदि राज इसको पकड़ लेगा तो अपने सबको दुःख एवं फांसी देगा इसलिये उन्होंने बाहर से उसका शिर खेचां पर अन्दर से संठ ने छोड़ा नहीं इस हालत में चोर की स्त्री एवं माताने चोर का शिर काट कर अपने वहा ले आयी अहा-हा संसार को धिकार !! धीकार २ !!! संसार कि जिस स्त्री माता के लिए चोर ने उमर भर चोरियाँ की वे ही माता और स्त्री चोर का शिर काट डाला । जब इस भव में ही इस प्रकार अपने किये कर्म आप ही को भुगतने पड़ते हैं तब परभव का तो कहना ही क्या है ? इत्यादि सूरिजी ने बड़े ही ओजस्वी शब्दों में उपदेश दिया जिसका प्रभाव जनता पर बहुत अच्छा हुआ जिसमें भी कुंवर भीमदेव के लिए तो मानो सीप के मुह में आसौज का जल पड़ने की भांति अमूल्य मुक्ताफल ही पैदा हो गया। भीमदेव ने सोचा की आज का व्याख्यान सूरिजी ने खास तौर मेरे लिये ही दिया है खैर जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई । सरिजी का वैराग्यमय उपदेश ]
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