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श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १५०८ - १५२८
है तो मेरा भी कर्तव्य है कि मैं अपने पट्टपर किसी योग्य मुनि को पट्टधर बना दूं । बस, श्रीसंघ की समुचित प्रार्थना को मान देकर शुभ मुहूर्त में अपने सुयोग्य शिष्य हर्षविमल को सूरिजी ने सूरि पदारूढ़ कर दिया । परम्परानुसार आपका नाम कक्कसूरि रख दिया । अपने पास में साधुओं की अधिकता होने से कक्कसूरि को आसपास में विहार करने की आज्ञा दे दी। सूरिजी के आदेशानुसार नूतनाचार्य भी कई मुनियों के साथ विहार कर गये । कालान्तर में श्रीसिद्धसूरिजी पुण्य कर्मोदय से सर्वथा रोग विमुक्त होगये पर नूतनाचार्य ककसूरि वापिस आकर आचार्यश्री से न मिले इससे सिद्धसूरिजी ने अपने पास के साधुओं को भेजकर ककसूरि
बुलवाये पर वे गच्छ नायकजी के बुलवाये जाने पर भी सेवा में उपस्थित न हुए। इस हालत में सूरिजी के हृदय में शंका पैदा हुई कि - मेरी मौजूदगी में भी इनकी यह प्रवृत्ति है तो मेरे बाद ये गच्छ का निर्वाह कैसे करेंगे ? अब पुनः गच्छ के समुचित रक्षण के लिये नूतन आचार्य बनाना चाहिये । बस, श्रीसंघ के परामर्शानुसार आपश्री ने अपने विद्वान एवं योग्य शिष्य श्री मेरुतिल कोपाध्याय को सूरि पद प्रदान कर उनका नाम सूरि रख दिया । तत् पश्चात् आचार्यश्री सिद्धसूरि अनशन पूर्वक चन्द्रावती में स्वर्गस्थ होगये ।
इस समय सिद्धसूरि के दो पट्टवर हो गये थे । उन दोनों का ही नाम ककसूरि ही था । पहिले सूरि बनाये ये कसूर की शाखा चंद्रावती की शाखा और बाद में बनाये कक्कसूरि की मूल खटकुंप शाखा ही रही। इन दोनों शाखाओं के आचार्यों की पट्टपरम्परा ककसूरि, देव गुप्तसूरि और सिद्धसूरि के नाम से चली आ रही है । चन्द्रावती की शाखा कहां तक चली इसका पता नहीं पर खटकुंप नगर की शाखा तो नंगी पौसालों के नाम से बीसवीं शताब्दी में भी विद्यमान है । खेतसीजी और खीवसीजी नाम के दो यति अच्छे विद्वान एवं प्रसिद्ध इस शाखा में थे । आपकी गादी पर एक यति इस समय भी मौजूद है । इन सिद्धसूरि की सन्तान परम्परा के कई आचार्यों ने मान्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई जिनके शिक्षा लेख मिलते हैं । श्रस्तु ।
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आचार्य श्री कक्कसूरि - मारोट कोट नगर । में जोइया ( क्षत्रिय) वंश का काकू नाम का माण्डलिक राजा राज्य करता था । उसने अपने प्राचीन किले प्रकोट को, अपनी विशाल बल वृद्धि लिये व दृढ़ दुर्ग बनाने के हेतु नींव के लिये भूमि खुदवाई । नींव से भगवान् नेमिनाथ की विशाल मूर्ति निकल आई। प्रभु प्रतिमा को भूगर्भ से निकली हुई देख राजा की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । उसको भविष्य का शुभ शकुन समझ राजा ने विद्वान ज्योतिषी को बुला कर इस विषय में पूछताछ की तो उन्होंने कहा - राजन् कार्यारम्भ में प्रभु प्रतिमा से बढ़कर और क्या शुभ शकुन हो सकता है ? यह तो नगर के व आपके लिये परमहित, सुख, क्षेम एवं कल्याण का कारण है। इस प्रकार अपने मनको पूर्ण संतुष्ट कर राजा ने नागरिकों को बुलवा कर कहा- हमारे सुकृतोदय से प्रत्यक्ष भगवान की प्रतिमा प्रगट हुई है। अतः इसे आप सम्भालें और मेरे द्रव्य से मन्दिर बनवा कर प्रतिमाजी की प्रतीष्ठा करवावें । श्रावकों ने बड़े ही हर्ष के साथ राजा के
देशको शिरोधार्य कर लिया। बस, शुभमुहूर्त में शिल्पज्ञ कारीगरों को बुला कर मन्दिर बनाने की आज्ञा दी । कारीगरों ने वृहत् संख्या में मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया और क्रमशः वह निर्विघ्न सम्पन्न भी होगया । मन्दिर बनाने में विशेषता यह थी कि राजा व अन्तःपुर समाज भी अपने महल में रह कर प्रभु प्रतिमा का दर्शन निर्विघ्नतया कर सकता था ।
इसी सुअवसर पर आचार्यश्री ककसूरिजी का पधारना सिंध प्रान्त में होगया । आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों को प्राप्त कर राजा की ओर से प्रधान मंत्री और नगर के नागरिक सूरिजी की सेवा में हाजिर हुए । उन्होंने अपने मारोटकोट नगर के सब हाल कह कर प्रतिष्ठा के लिये आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। सूरिजी ने भी लाभ का कारण सोचकर श्रीसंघ की प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार करली। आप तत्क्षण मारोट कोट, उक्त प्रार्थनानुसार पधार भी गये। राजा आदि नागरिकों ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया । राजा के त्याग्रह से सूरिजी ने शुभमुहूर्त में बड़े ही समारोह से नेमिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । राजा
सिद्धसूरिजी के पट्टपर दो श्राचार्य
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