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आचार्य कक्कमरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ९५८-१००१
३६-प्राचार्य भी कक्कलरिजी महाराज (सप्तम)
श्रेष्ठ्याख्यान्वयसंभवः सुविदितः श्रीककमरिर्महान् । विद्याज्ञान् समुन्द्र एष नृपतिं चित्रागदं वै सुधीः ॥ जैन दीक्षितवान् तथा च कृतवान् श्रीकान्यकुब्जेपुरे । मूर्ति स्वर्णमयीं विधाय भवने देवस्य संपूजकम् ॥
प्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज महाप्रभाविक एवं प्रखर धर्मप्रचारक आचार्य हुए हैं । श्राप Bhad श्री ने पूर्व परम्परागत अजैनों को जैन बनाकर शुद्धि करने की मशीन से व अपने पीयूष
रस प्लावित अमूल्योपदेशामृत से अनेक हिंसानुयायी वाममार्गियों को व मांसाहारी क्षत्रिP यादिकों को पवित्र जैनधर्म के पावन संस्कार से सुसंस्कृत कर उन्हें उपकेश वंश (महाजन
संघ) में सम्मिलित कर उपकेश वंश की आशातीत वृद्धि की । आप श्री की कठोर तपश्चर्या एवं सच्चरित्रतादि सविशेष गुणों से आकर्षित हो साधारण जनता ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजा भी आपकी सेवा का लाभ लेने में अपना अहोभाग्य-धन्य दिवस समझते थे । शास्त्रीय मर्म के प्रकाण्ड पण्डित श्रीआचार्यदेव शास्त्रार्थ में तो इतने सिद्धहस्त कुशल थे कि कई राज सभाओं के वादी कई बार आपसे पराजित हो चुके थे । वादी मानमर्दक श्रीसूरीश्वरजी ने कई वादियों को पवित्र जैनधर्म की दीक्षा से दीक्षित कर उन्हें सत्पथानुगामी बनाया । भ्रम से भूल कर अज्ञानता के निबिड़ तिमिरमय मार्ग की ओर प्रवत्ति करने वाले अज्ञानियों के लिये सत्पथप्रदर्शक बन सूरिजी ने उनको कण्टकाकीर्ण मार्ग से बिलग कर, चार पथ के पथिक बनाये । इस तरह चतुर्दिक में पवित्र जैनधर्म की उत्तुंग पताका को फहरा कर श्राचार्यश्री ने शब्दतोऽवर्णनीय यशः सम्पादन किया।
___ दुष्काल के बुरे असर से जो श्रमणों में शिथिलता आगई थी उसको जगह २ श्रमण सभागों से मिटाकर सूरीश्वरजी ने शिथिलाचारी मुनियों को उपबिहारी बनाये । श्रमणों के आवागमन के अभाव से जो क्षेत्र सद्धर्मा-पराङ्मुख बन गये थे, उन क्षेत्रों में श्राचार्यश्री ने स्वयं विहार कर पुनः धर्माकुर अङ्कुरित किया । अतः यदि यह कह दिया जाय कि आपका जीवन ही जैनधर्म की प्रभावना के लिये हुआ तो, कोई अत्युक्ति न होगी। पाठकों की जानकारी के लिये आपश्री का जीवन सक्षिप्त रूपमें लिख दिया जाता है ।
मरुधर भूमि के लिये अलंकार स्वरूप, अमरपुर से स्पर्धा करने वाला अनेक उपवन, वाटिका, कूप, सरोवर व विविध पादपों के विचित्र सौंदर्य को धारण किये हुए अत्यन्त रमणीय उत्तम नमस्पर्शी अट्टालिकाओं समन्वित सुवर्ण कलस ध्वज दंड वाले अनेक जिनालय व धर्मशालाए से सुशोभित मेदिनीपुर नामक नगर था । यह नगर उपकेश वंश की विशेष आबादी (विशेष संख्या) से भरा हुआ था । उपकेश वंशीय जन समाज-जैसे राज्य कार्य को चलाने में राज्यनीति निष्णगत था वैसे ही व्यापारिक श्रेणी में भी सबसे आगे कदम बढ़ाया हुआ था । इन उपदेश वंशियों का व्यापार क्षेत्र भारत के परिमित संकुचित क्षेत्र के ही लिये हुए नहीं था अपितु इनके ब्यापार क्षेत्र का सम्बन्ध भारत से बहुत दूर पाश्चात्य प्रदेशों से भी था । ये लोग
मेदनीपुर नगर
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