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________________ वि० सं० ७७८.८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाहनारायण, नेतासीशाइ, खेतमीशाह राजसी, शाहजाबड़, शाह जगहू, शाहराका, शाहपद्मा, इत्यादि पूर्वोक्त शाहों के नाम अन्य स्थानों पर भी मिलते हैं । इनके अतिरिक्त और भी कई नामख्याति में हैं उनके लिये भी हम शंका नहीं कर सकते क्योंकि करोड़ों की संख्या में उस समय महाजनसंघ थे तब उनके नाम भी कुछ न कुछ होंगे ही । जब हमें अपने पूर्वजों की पांच सात पीढ़ियों के सिवाय नाम भी स्मरण नहीं हैं तो शाहों के नामों के विषय की शंका करना तो निर्मूल ही है। हां अर्वाचीन लेखकों ने नामों के अन्त में मल चन्द राजादि शब्द जोड़ दिये हो इसको अर्वाचीन लेखन पद्धति ही समझना चाहिये । दूसरी बात जाति की है उस समय महाजनसंघ में जातियों की सृष्टि हो गई थी उस की गिनती भी नहीं थी और जो जातियां ख्याति में लिखी हैं वे जातियां ठीक हों तो भी कुछ कहा नहीं जा सकता । अतएव यह शंका भी निर्विवाद अस्थान है । तृतीय बात है शाहों के निवास नगरों की । इसके लिये इतना विचार हमें अवश्य करना पड़ेगा कि कई प्राचीन नगर तो विधर्मियों के आक्रमण से नष्ट हो चुके हैं और कई एक नगरों के नाम अपभ्रंश होकर बिल्कुल ही बदल गये । और कई प्राचीन नामों के स्थान नये नगर बस गये और उनके नाम भी वही रक्खे गये हैं जो प्राचीन थे। अतएव नगरों के विषय में ऐसी कोई बाधक शंका नहीं उठती है । चतुर्थ बात है उनके समय की यह बात अवश्य विचारणीय है क्योंकि ख्याति में जो समय अंकित है वह कुछ थोड़े नामों को छोड़ कर प्रायः सब काल्पनिक हैं। एक यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि एक ही जाति में एक नाम के अनेक महाजन हो जाने से भी समय लिखने में गड़बड़ी हो जाती है । और ऐसी गड़बड़ केवल इन शाहाओं की ख्यात के लिये ही नहीं किन्तु अन्य भी ऐतिहासिक प्रन्थों में भी दृष्टिगोचर होती है जैसे कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्रसूरि रचित परिशिष्ट पर्व प्रन्थ, प्राचार्य प्रभाचन्द्रसूरि का प्रभाविक चरित्र, प्राचार्य मेरुतुंग सूरि रचित प्रबन्ध चिन्तामणि, प्राचार्य जिनप्रभ सूरि रचित विविध तीर्थ कल्पादि प्रमाणिक ग्रन्थों में भी समय के विषय कई स्थानों पर त्रुटियां मालूम होती है इसका मुख्य कारण घटना समय के सैकड़ों वर्ष पश्चात् ग्रन्थ लिखे गये हैं इस हालत में ख्याति में समय की त्रुटियां रह जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । पर समय के रद्दोबदल हो जाने पर भी वह घटना कसित नहीं कही जा सकती है हां अन्य साधनों द्वारा संशोधन कर उसको ठीक व्यवस्थित बनाना हमारा कर्तव्य है और हमने इस विषय में कुछ प्रयत्न भी किया है जैसे बहुत से आचार्यों ने सांवत्सरी पांचवीं के स्थान में चतुर्थी को करने वाले कालकाचार्य को बीर की दशवीं शताब्दी में होना लिखा है वास्तव में वे कालकाचार्य वीर की पांचवीं शताब्दी में हुये थे इसी प्रकार एक नाम के एक नहीं पर अनेक शाह हो जाने से समय का रहोबदल हो ही जाता है। एक समय को ठीक संशोधन कर लिया जाय तो शाहका नाम तथा जातिका भी पता लग जायगा कि उस समय वे जातियाँ अस्तित्व में आ गई थी ? या नहीं ? तथा नगर का भी पता लग जायगा कि उस समय यह नगर था या नहीं ? अर्थात् इन शाहाओं की ख्यातों का ऐतिहासिक तथ्य केवल एक समय पर ही निर्भर है अतः सब से पहले हमको सगय की ओर लक्ष देना चाहिये । अर्थात सब से पहले समय की शोध करनी चाहिये इसके पश्चात् पाँचवीं बात है शाहओं के कार्यों की। इसके हेतु यह समझना कठिन नहीं है कि उस समय जैन समाज में जैनमन्दिर बनाना, तीर्थों के संघ निकालना, संघ पूजा करना, न्याति जाति को अपने घर आमन्त्रित करना इन कार्यों में संघ को पहरावनी (प्रभावना) देना जिसमें अपनी शक्ति के अनुसार कोई भी कमी नहीं रखते थे क्योंकि उस समय इन बातों का बड़ा भारी गौरव समझा जाता था। शक्ति के होते हुये पूर्वोक्त कार्य में १२७८ ऐतिहासिक कसौटी और ख्याति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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