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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११७८-१७३७ से कोई भी कार्य कर अपने श्रापको वे कृतार्थ सप्रमते ये । ख्याति का समय तो बहुत प्राचीन कालसे प्रारम्भ होता है परन्तु गोडबाड़ प्रान्त में तो इस बोसवीं शताब्दी तक भी अपने घर पर प्रसंग श्राने पर ५२ प्राम ६४, ७२, ८४ तथा १२८ प्रामों के महाजनों को आमन्त्रित किये जाते थे और प्रभावना-लहण-पहरावणी में लड्डुओं के साथ पीतल के बर्तन तथा वस्त्रादि दिये जाते थे कई २ चांदी के बरतन भी देते थे तब उस प्राचीनकाल में सुवर्ण दिया जाता हो तो आश्चर्य की कौनसी बात है ? क्योंकि उस समय लोगों के पास नीति न्याय और सत्यतासे उपार्जित द्रव्य ही आया करता था और यह ऐसे ही शुभ कार्यों में लगता था। कई लोगों ने मन्दिर के लिये भूमि पर रुपये बिछवा कर रुपयों के बराबर भूमि ली थी तब कई एकों ने एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक रुपयों के छकड़े के छकड़े जोड़ देने की उदारता दिखलाई थी। सब से उत्तम बात तो यह थी कि उस समय के लोगों के चित्त में पुण्य नाश का कारण माया कपट और तृष्णा बहुत कम थी और देव गुरु धर्म पर उनकी अटल एवं पूर्ण श्रद्धा थी। वे यही समझते थे कि लक्ष्मी स्थिर नहीं पर चंचल है इसे जितनी शुभ कार्यों में व्यय की जाय वही अपने संग चलेगी अतः वे लोग येनकेनप्रकारेण जहां सुअवसर देखा लाखों करोड़ों द्रग शुभ कार्यों में व्यय कर दिया करते थे फिर भी समय २ की रुचि और प्रवृत्ति भिन्न होती हैं, जैसे वर्तमान में विद्यालय तथा औषधालय श्रादि प्रचार को अधिक महत्व दिया जाता है और इन कार्यों के लिये आज भी लाखों करोड़ों का व्यय किया जाता है । (अवशेष) वैसे ही उस समय मन्दिर बनाने यात्रार्थ संघ निकालने न्याति जाति के लोगों को अपने घर पर बुलवा कर उनका सत्कार सन्मान एवं पूजा कर लहण एवं पहरावणी देना तथा याचकों को पुष्कल दान देने में ही वे लोग अपना गौरव समझते थे । वास्तवमें वे लोग अपने कल्याण के साथ दूसरों का भला भी करते थे अतः इसके अलावा गौरव की बात ही क्या हो सकती है।
वर्तमान में हमारी समाज में ऐसे विद्वानों (।) की भी कमी नहीं है कि प्राचीन प्रन्थ पदावलियों बंशावलियों की बातों को ऐतिहासिक साधनों की आड़ लेकर कल्पित ठहरा देते हैं। यदि वे विद्वान थोड़ा सा कष्ट उठा कर ठीक शोध खोज करें तो उनको पता मिल जायगा कि हमारे पूर्वाचार्यों ने लिखा है बह ठीक यथार्थ ही है और विशेष सोध खोज करने पर उन बातों के लिये इतिहास का भी सहारा मिल जायगा पर परिश्रम करने वाला होना चाहिये । इतिहास के विषय हम अन्यत्र लिखेंगे।
इस समय ७॥ शाहात्रों की मेरे पास पांच प्रतियां विद्यमान है उनको अलग २ न छपा कर एक ही साथ नम्बरवार छपा देना उचित समझा है कारण ऐसा करने से एक तो पाठकों को एक ही स्थान पांचों प्रतियां पढ़ने की सुविधा मिल जायगी दुसरा एक ही समय में किस २ प्रान्त में कौन कौन शाह हुआ, तीसरा कौन शाह केसा मान्य हुआ और किस शाह का नाम सब प्रातियों में मिलता है और किस २ ने या २ सामान एवं विशेष काम किया इत्यादि।
अन्त में मैं यह आशा करता हूँ कि इन ख्यातों द्वारा प्राचीन समय के महाजन संघ का समृद्धशाली पना तथा उनकी उदार भावना देख कर उनकी संतान को गौरव रखना चाहिये कि हमारे पूर्वजों ने किस किस मौलिक गुणों से धन राशि सम्पादन की थी और परोपकार के लिये उस सम्पति का किस प्रकार सदुपयोग किया था । उन गुणों के अभाव हमारी कैसी पतित दशा हुई है ? यदि अब भी हम चाहें तो उन गुणों को हासिल कर हमारे पूर्वजों के पंथ के पंथिक बन कर वे ही कार्य कर सकते हैं ? खैर इन ७४॥ शाहाओं
की ख्यातों को पढ़ कर सद्भावना से अनुमोदन करेगा तो मैं मेरे परिश्रम को सफल हुआ सममूंगा । Jain Eestiuit aanzet 751 TTIETIE A1FTFor Private & Personal Use Only
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