SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य कक्क सूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४० - ८८० विकट था इधर गरमी भी खूब पड़ती थी यात्री लोग साथ में पानी लिया वह बिच में ही पीकर खत्म कर दिया था । विशेषता यह थी कि ऐसा गरमी का वायु चला कि पानी के विनों लोगों के प्राण जाने लगे जिभ्यातालुके चप गई उनकी बोलने तक की शक्ति नहीं रही। इस हालत में संघ अप्रेश्वरों ने आकर सूरीश्वरजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आप जैसे जंगम कल्पवृक्ष के होते हुए भी श्रीसंघ इस प्रकार अकाल में ही काल के कवलिये बन रहे हैं। पूर्व जमाना में आपके पूर्वजों ने अनेक स्थानों पर संघ के संकटों को दूर किया है आचार्य ब्रज स्वामी ने दुकाल रूप संकट से बचाकर संघ को सुकाल में पहुँचा कर उनका रक्षण किया तो क्या आप जैसे प्रतिभाशालियों की विद्यमानता में संघ पानी बिना अपने प्राण छोड़ देंगे, इत्यदि । श्राचार्य कक्कसूरिजी ने संघ की इस प्रकार करूणामय प्रार्थना सुन कर अपने ज्ञान एवं स्वरोदय बल जान कर कहा कि महानुभावों ! मैं यहां बैठकर समाधि लगाता हूँ यहाँ एक पाक्षी का संकेत होगा । वहाँ पर आपको पुष्कल जल मिल जायगा बस । इतना कह कर सूरिजी ने समाधि लगाई इतने में तो एक सुपेत पाखोंचाला पाक्षी व्याकाश में गमन करता हुआ आया और एक वृक्ष पर बैठा जल की आशा से संघ के लोग इस संकेत को देखा और वहां जाकर भूमि खोदी तो स्वच्छ, शीतल, निर्मल पानी निकल आया वह पानी भी इतना था कि अखूट बस फिर तो था ही क्या सब संघ ने पानी पीकर arer को शान्त की और आपके साथ जल पात्र थे वे सब पानी से भर लिये पर यह किसी ने भी परवाह कलिकाल है। खैर सब काम निपट लेने अतः सब की सम्मति हुई कि की कि सूरिजी समाधि समाप्त की या नहीं। इसी का ही नाम तो के बाद सूरिजी ने अपनी समाधि समाप्त की । बाद संघ अग्रेश्वरों ने एकत्र होकर यह विचार किया कि यहाँ पर आज श्रीसंघ के प्राण बचे और सूरिजी की कृपा से सब लोग नूतन जन्म में आये हैं तो इस स्थान पर एक ऐसा स्मृति कार्य किया जाय कि हमेशों के लिये स्थायी बन जाय । यहाँ एक कुंड और एक मन्दिर बनाया जाय और प्रति वर्ष वहाँ मेला भरा जाय । बस यह निश्चय कर लिया चरित्रकार लिखते हैं कि उस स्थान आज भी कुंड है और प्रति वर्ष मेला भरता है खैर संघ आर्बुदा चल गया और भगवान् आदीश्वरजी की यात्रा की । आहाहा - पूर्व जमाने में जैनाचार्य कैसे करूणा के समुद्र थे और संघ रक्षा के लिये वे किस प्रकार प्रयत्न किया करते थे तब ही तो संघ हरा भरा गुल चमन रहता था और आचार्य श्री का हुक्म उठाने के लिये हर समय तत्पर था अस्तु । संघ यात्रा कर अपने २ स्थान को लौट गया और सूरिजी महाराज वहाँ से लाट प्रदेश की ओर पधार गये क्रमशः विहार करते हुए भरोंच नगर की ओर पधारे वहाँ का श्रीसंघ सूरिजी का अच्छा स्वागत किया सूरिजी महाराज ने भरोंच नगर के संघाग्रह से वहाँ कुच्छ अर्सा स्थिरता की आपका व्याख्यान हमेशा होता था मारोटकोट नगर में उपकेशवंशीय श्रावकों की बहुत अच्छी आबादी थी जिस में एक श्रेष्टिव पद्याधःस्थ वटस्याधो, दंर सन्दर्श्य वायुतम् । सर्वोऽप्युज्जी व्याञ्चक्रे, किमसाध्यं तपस्विनाम् सहस्रसंख्यै स्तल्लोकैः पीयमान मनेकशः । जगाम न क्षयं वारि, सङ्घः स्वस्थः क्षणादभूत् तत्कुण्ड वारि सम्पूर्ण, मद्याप्यस्ति तदाद्यपि । प्रत्यब्दवासरे तस्मिन्नृकेश गणसेविनः श्राद्धा चन्द्रावती सत्का, स्तत्र पद्यावटस्थिताः । साधर्मिकानां, वात्सल्यं कुर्वते भोजनैर्जलैः "उपकेशगच्छ रचत्रि" 3 अर्बुदाचल की यात्रा और संघ उद्धार ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ८६३ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy