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वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
२७-हटोड़ी के श्रेष्टिगौ० , वीरदेव ने २८-कुंतिनगरीके प्राग्वटवंशी , बोहरा ने
श्रहा-हा ! उस जमाना में जैन श्रीसंघ की मन्दिर मूर्तियों पर कैसी श्रद्धा थी कि प्रत्येक जैन के घर में घर देरासर तो थे ही पर वे नगर मन्दिर बनाकर अपनी लक्ष्मी का किस प्रकार सद् उपयोग करते थे ? यही कारण था कि तक्षशिला में ५०० मन्दिर थे । कुन्तीनगरी में ३०० चन्द्रावती में ३०० मथुरा में ३०० मन्दिर ७.० स्तूम्भः शौयपुर, राजगृह, चम्पा, उपकेशपुर नागपुर सिन्नमाल पद्मावती हंसावली पादलिप्तपुर वगैरह बड़े-बड़े नगरों में सेकड़ों मन्दिर थे इतने ही प्रमाण में मन्दिरों के सेवा पूजा करने वाले जैन श्रावक बसते थे इतना ही क्यों पर जैनवसति वाला छोटा से छोटा ग्राम में भी जैन मन्दिर अवश्य होता था-और जैन मन्दिर होने से गृहस्थों के पुन्य बढ़ता था कारणमन्दिर के निमित कारण से गृहस्थों के घर से शुभ भावना से कुछ न कुछ द्रव्य शुभक्षेत्र में लगही जाता था यही कारण था कि वे लोग धन धान पुत्र कलित्र और इज्जत, मान प्रतिष्टा से सदैव समृद्धशाजी रहते थे । कहा भी है कि कुओं में पुष्कल पानी होता है तव गृहस्थों के घरों में भी खुव गहेरा पानी रहता है इसी प्रकार जिनके पूज्य ईष्टदेव के मन्दिर में खूब रंगराग महोत्सव रहता है तब उनके भक्तों के घरोंमें भी अच्छी तरह से रंगराग हर्ष मानन्द मंगल और महोत्सव बना ही रहता है। जब हम पट्टावलियों वंशावलियो वगैरह प्रन्थ देखते है तो इस बात का पत्ता सहज ही में मिल जाता है कि उस जमाना के जैन जोग सब तरह से सुखी थे। एकेक धार्मिक कार्यों में लाखों रुपये लगादेना तो उनके लिये साधारण कार्य ही था यह सब मन्दिरों की भक्ति का ही सुन्दर एवं मधुर फल थातीसवे पट्टधर सिद्धसूरीश्वर, तपकर सिद्धि पाई थीं ।
नत मस्तक बन गये वादीगण, विजय मेरी बजाई थी। किये ग्रन्थ निर्माण अपूर्व, प्रतिष्ठायें खूब कराई थी।
___अमृत पी कर जिन वाणी का कई एक दीक्षा पाई थी॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथ के ३० वें पट्ट पर प्राचार्य सिद्धसूरीश्वर महान प्रभाविक आचार्य हुये ॥
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[बड़े बड़े नगरों में जैनमन्दिर ..