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आचार्य सिद्धहरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ७७०-८००
बल्लभी नगरी का भंग और रांका जाति की उत्पत्ति
वल्लभी नगरी सौराष्ट्रप्रान्त की प्राचीन राजधानी थी । वल्लभी नगरी के साथ जैनियों का घनिष्ट सम्बन्ध था, पुनीत तीर्थ श्री शQजय की तहलेटी का स्थान वल्लभी नगरी ही था जैनाचार्यों के चरण कमलों से वल्लभी अनेकवार पवित्र बन चुकी थी एक समय वल्लभी के राजा प्रजा जैन धर्म के उपासक एवं अनुरागी थे । उपकेशगच्छीय प्राचार्यों का आना जाना एवं चतुर्मास विशेष होते थे, आचार्य सिद्धसूरि ने वल्लभी नगरी के राजा शिलादित्य को उपदेश देकर शत्रुजय का परम भक्त बनाया था और उसने शत्रुञ्जय का उद्धार भी करवाया था तथा पर्युषणादि पर्व दिनों में राजा सकुटुम्ब शत्रुञ्जय पर जाकर अष्टान्हिका महोत्सवादि धर्म कृत्यकर अपना कल्याण साधन किया करता था इत्यादि । यही कारण है कि जनप्रन्थकारों ने वल्लभी नगरी के लिये बहुत कुछ लिखा है । वल्लभी का इतिहास पढ़ने से पाया जाता है कि भारतीय व्यापारिक केन्द्रों में वल्लभी भी एक है वहाँ पर बड़े बड़े व्यापारी लोग थोकबन्द व्यापार करते थे। यहाँ का जत्था वन्द माल पाश्चात्य प्रदेशों में जाता था वहाँ का माल यहाँ आया करता था जिसमें वे लोग पुष्कल द्रव्य पैदास करते थे उन व्यापारियों में विशेष लोग महाजन संघ के ही थे। कई विदेशी लोग यात्रार्थ भारत में श्राते थे और भारतीय कला कौशल व्यापार वगैरह भारतीय सभ्यता देख देख कर अपने देशों में भी उनका प्रचार किया करते थे उनके यात्रा विवरण की पुस्तकों से पाया जाता है कि उस समय वल्लभी नगरी धन धान्य से अच्छी समृद्धशाली नगरी थी।
विक्रम संवत पूर्व कई शताब्दियों से विदेशियों के भारत पर आक्रमण हुआ करते थे और कभी कभी तो धनमाल लूटने के साथ कई नगरों को ध्वंश भी कर डालते थे। इस प्रकार के आक्रमणों से वल्लभी नगरी भी नहीं वच सकी थी इस नगरी को भी विदेशियों ने कई वार नुकशान पहुँचाया था जिसके लिये इतिहासकारों ने वल्लभी का भंग नाम से कई लेख लिखे हैं और उनका समय अलग अलग होने से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वल्लभी पर एक वार ही नहीं पर कई वार आक्रमण हुभा होगा। इतना ही क्यों पर कई उदाहरण तो ऐले ही मिलते हैं कि भारत में आपसी विद्रोह एवं सत्ता का अन्याय के कारण भारतीयों ने अपने ही देश पर आमन्त्रण करवाने को विदेशियों को लाये थे जैसे उज्जैन के गर्द भिल्ल का अत्याचार के कारण काल काचार्य ने शकों को लाये थे । तथा कई देवादि के कोप से भी पट्टन दटन होगये थे कई आपसी झगड़ों से और कई दुकालादि के कारण भी नगर विध्वंश होगये थे जिन्होंके स्मृति चिन्ह आज भी भूगर्भ से उपलब्ध हो रहे हैं जैसे हराप्पा मोहनजाडेग और नालंदादि के खोद काम से नगर के नगर भूमिसे निकले हैं । अतः आज मैं वल्लभीभंग के विषय में यहाँ पर कुच्छ लिलूँगा । जो जैन इतिहासकारों ने अपने प्रन्थों में लिखा हैं।
___ यह तो मैं ऊपर लिख आया हूँ कि वल्लभी का भंग एक बार नहीं पर कई वार हुआ है कई विक्रम की चतुर्थ शताब्दी तो कई छटी शताब्दी एवं कई आठवी शताब्दी में वल्लभी का भंग हुआ लिखते हैं जैसे उपकेशगच्छ पट्टावली में लिखा है कि वल्लभी का भंग वि० सं०३७५ में हुआ था और यही बात भाचार्य मेरुतुंग ने अपनी प्रबन्ध चिंतामणि एवं विचार श्रेणी में लिखी हैं । जैसे किवल्लभी नगरी के साथ जैनों का सम्बन्ध ]
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