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आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १९७८ से १२३७
याद रखना कि उस द्रव्य से मेरे निर्माण किये सब शास्त्र लिखवा कर भण्डारों में रखने, साधुओ को पठन पाठन के लिये भेंट करने एवं प्रचार करने होंगे ।
बस, महा पुरुषों के वचनों में कभी संदेह हो ही नहीं सकता है, तदनुसार कार्पासिक बड़ा ही धनवान् होगया । इस पर उसने सूरिजी की आज्ञा का सम्यक प्रकारेण पालन किया ।
सूरज ने अन्यभावुक को उपदेश न देकर एक ही भक्त से ऊच शिखरवाले चौरासी चैत्य बनाये । चिरकाल से जीर्ण शीर्ण हुए और दमक से काटे गये महानिशीथ सूत्र का पुनरुद्धार करवाया। कहा जाता है कि इस कार्य में १ - आयरिय हरिभद्देण २ - सिद्धसेण xx ३ – बुड्ढवाई xx, ४ - जक्खसेण x x ५ - देवगुत्ते xx, ६ – जस्समद्देणं x x ७- खमासमणसीसरवित्त x x ८ - जिणदासगणि" x x । "महानिशीथ सूत्र "
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इन आठ आचार्यों ने महानिशीथ सूत्र का उद्धार कर पुनः लिखा था। जो आज भी विद्यमान इत्यादि श्राचार्य हरिभद्रसूरि ने जैनशास्त्र की महान सेवा एवं प्रभावना की । यदि यह कह दिया जाय कि जैनधर्म के साहित्य निर्माण करने में पहला नम्बर आपका है आप अपनी जिन्दगी में जितने ग्रंथों की रचना की है एक मनुष्य अपनी जिन्दगी में उतने शास्त्र शायद ही पढ़ सके ?
अन्त में आचार्य श्री ने श्रुतज्ञान द्वारा अपने आयुष्य की स्थिति बहुत नजदीक जानकर तत्काल अपने गुरू महाराज के चरणों में उपस्थित हुए चिरकालीन शिष्य विरह को त्याग कर आलोचना पूर्वक अनसन व्रत की आराधना कर समाधि पूर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। जैनशासन रूपी आकाश में हरिभद्राचार्य रूपी सूर्य ने अपनी किरणों का प्रकाश दिग-दिगान्त तक प्रसरित कर जैनधर्म का बहुत उद्योत किया ऐसे महापुरुषों का विरह समाज को असह्य होना स्वभाविक ही है अतः उन महापुरुष को कोटी कोटी बन्दन नमस्कार हो ।
पूज्याचार्य हरिभद्रसूरि का चरित्र मैंने प्रभाविक चरित्र के आधार पर संक्षिप्त ही लिखा है पर आचार्य भद्रेश्वरसूरि की कथावली में भी श्राचार्य हरिभद्रसूरि का चरित्र लिखा हुआ मिलता है किन्तु उसके अन्दर सामान्यतय कुच्छ भिन्नता मालुम होती है पाठकों के जानकारी के लिये यहां पर सूचना मात्र करदी जाति है
आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्यों के नामचरित्र कारने हंस और परमहंस लिखा है पर कथावली में जिनभद्र और वीरभद्र बतलाया है । शायद शिष्यों के नाम तो जिनभद्र और वीरभद्र ही हो यदि उनके उपनाम हंस और परमहंस हो तो संभव हो सकता है क्योंकि जैन मुनियों के हंस परमहंस नाम कहीं पर लिखा हुआ नहीं मिलता है | दूसरा चरित्र में हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थों का प्रचार के लिये 'कार्पासिक' गृहस्थ को प्रति बोध देकर एवं व्यापार का लाभ बतला एवं कार्पासिक को व्यापार में पुष्कल द्रव्य मिल जाने से उसने हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों को लिखवाकर सर्वत्र प्रचार किया तथा चौरासी देहरियोंवाला जैनमन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई । इत्यादि । तब कथावली में हरिभद्रसूरि ने एक लल्लिंग नामक गृहस्थ जो आपके शिष्य जिनभद्र-वीरभद्र के काका लगता था उसका विचार तो संसार का त्याग कर सूरिजी के पास दीक्षा लेने का था पर श्रुतज्ञान के पारगामी सूरिजी ने उसको दीक्षा न देकर ऐसी सूचना की कि जिससे वह गरीब स्थिति
आचार्य हरिभद्रसूरि के जीवन में
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