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वि० सं० ७७८-८३७ ]
भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
विषेण पित्र बन्धु हुए, आठवें भव में गुणसेन और बाणव्यंतर हुए और नववें भव में गुणसेन समरादित्य और अग्निशर्मा मतंग पुत्र हुआ समरादित्य संसार से मुक्त हुआ और गिरिसेन अन्न्त संसारी हुआ । इसी प्रकार गाथाओं को पढ़ कर अर्थ विचारने में संलग्न हरिभद्रसूरि सोचने लगे कि एक वनवासी मुनि के पार का भंग होने से नियाणे के परिणाम स्वरूप भव चक्र में इतना परिभ्रमण करना पड़ा तब यहाँ तो क्रोध रूप दावानल की ज्वालाएं प्रसारित कर बौद्धमत के साधुओं को बुरी मौत मरवा डालने के कटु पाप का मुझे कैसे भीषण फल भोगना पड़ेगा ? इस प्रकार पश्चाताप करते हुए बौद्धों के वैर भाव को छोड़ कर गुरुमहाराज का अवर्णनीय उपकार मानते हुए हरिभद्रसरि ने सूरपाल राजा की आज्ञा लेकर तत्काल वहां से विहार कर दिया । क्रमशः गुरु के चरणों में आकर एवंमस्तक नमा कर क्रोध वशकिये हुए नर्थ के लिये क्षमा और प्रायश्चित की याचना करने लगे ।
गुरु महाराज ने हरिभद्र के मस्तक पर हाथ रखते हुए कहा कि - हरिभद्र ! तू महान् विद्वान एवं प्रभावक है । तेरे जैसों से शासन की शोभा है । इस प्रकार उनकी प्रशंसा करते हुए सूरि जी ने उनको पाप का योग्य प्रायश्चित दिया ।
इतना सब कुछ होने पर भी हरिभद्रसूरि को शिष्य विरह सदा खटकता रहता था । एक समय अम्बिका देवी सूरिजी के पास आई और वंदन करके उपालम्भ पूर्वक कहने लगी- गुरुदेव ! श्राप जैसे शास्त्रमर्मज्ञों को शिष्य मोह होना निश्चित ही एक आश्चर्य की बात है । कारण, कर्म फल तो सबको भोगना ही पड़ता है, इस पर भी आप स्वयं ज्ञानी हैं। आपको तो तप संयम की आराधना कर गुरु सेवा में रहते हुए आत्म कल्याण सम्पादन अवश्य करना चाहिये ।
हरिभद्रसूरि ने कहा --- देवी ! शिष्य विरह जितना दुःख नहीं है उतना अनपत्यता का दुःख है । इस पर देवी ने कहा- आपके भाग्य में शिष्य सन्तति का होना नहीं है अतः आपके शिष्य श्राप के निर्माण किये हुए प्रन्थ ही रहेंगे । बस, आज से श्राप इसी कार्य के लिये प्रयत्न शील रहिये ।
देवी के वचनानुसार आपने अपना कार्य प्रारम्भ किया । सर्व प्रथम तीन गाथाओं से अपने प्रतिबोध पाया था अतः प्रस्तुत तीन गाथा गर्भित समरादित्य चरित्र की रचना की और बाद में क्रमशः १४०० या १४४४ प्रन्थों का निर्माण किया । शिष्य विरह को लक्ष्य में रख विरहपद सहित अपना सर्व घटना युक्त चरित्र बनाया । जब ग्रन्थों का विस्तृत प्रचार करने का श्राप विचार कर रहे थे तब कार्पासिक नामक एक भव्य पुरुष दृष्टिगोचर हुआ । श्रापको अपने निर्माण किये प्रन्थों का प्रचार करने के लिये 'कार्पासिक' नाम का सेठ ही योग्य मालूम हुआ । अतः प्राचीन महापुरुषों एवं भारतादि के चरित्र को सुना उसे जैन धर्म की ओर आकर्षित किया । पञ्चधूर्त व्यान सुना कर उसकी जैन धर्म पर दृढ़ श्रद्धा स्थापित करवाई | दानादि । यथोचित स्वरूप को समझाया। इस पर उसने कहा- गुरु देव ! दान प्राधन जैनधर्म द्रव्य बिना कैसे शोभा देता है ? सूरिजी ने कहा- हे भव्य ! धर्म की आराधना से पुष्कल द्रव्य की प्राप्ति होती है ।
कार्पासिकने कहा-भगवन् ! यदि ऐसा ही है तो मैं मेरे सब कुटुम्ब के साथ आपकी सेवा करूँगा । सूरि जी - हे भव्य ! सुन, आज से तीसरे दिन विदेशी व्यापारी नगर के बाहर आयेंगे सो तू सब
से पहिले जाकर उसका सब माल खरीद लेना जिससे तुझे बहुत ही लाभ होगा । तू धनी बन जायगा पर
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हरिभद्र की संतति ग्रन्थ ही होगी
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