________________
वि० सं० ७७८-८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
से निकल खूब धनाढ्य बन गया और वह सेठ सूरिजी के कार्य में बहुत सहायक बन गया उस लल्लिग सेठ ने सूरिजी के मकान पर एक ऐसा रत्न रख दिया कि सूरिजी रात्रि में भी प्रन्थ रचना कर सके जैसे रात्रि में वे भीत शिला पर लिखते जिसको दिन में लेखक से लिखवा लेते थे ।
कइ स्थानों पर यह भी लिखा है कि हरिभद्रसूरि के जब आहार करने का समय हो जाता तब वे शंक्ख बजाकर याचकों को एकत्र कर उनकों मनेच्छित भोजन देकर बाद में श्राप भोजन करते थे पर कथाली में लिखा है कि शंक्ख सूरिजी नहीं पर लल्लिंग सेठ बजाता था और याचकों को दान भी वही देता था सूरिजी तो उन याचकों की वन्दना के बदला में भवविरह रूप आर्शीवाद देते थे जिससे सूरिजी का नाम भी भवविरहसूरि पड़ गया था ।
हरिभद्रसूरि का समय चैत्यवास का समय था और चैत्यवास करने वालों में शिथिलाचारी भी थे और सुविहितभी थे - हरिभद्रसूरि के गुरु जिनदत्तसूरि तथा विद्यागुरु जिनभटसूरि चैत्य में ही ठहरते थे पुरोहित हरिभद्र जिस समय जैनमन्दिर में श्राया था और प्रभु की निंदामय स्तुति की थी उस समय आचार्यजिन दत्तसूरि मन्दिर में विराजते थे तथा दूसरी बार फिर हरिभद्र जैनमन्दिर में श्राया और जिनेन्द्रदेव के गुणों की स्तुति की उस समय भी आचार्यश्री जिनमन्दिर में ही ठहरे हुए थे और हरिभद्र को उपदेश भी वही दिया था इससे पाया जाता है कि हरिभद्रसूरि के गुरु चैत्यवासी थे तब हरिभद्रसूरि भी चैत्यवासी हो तो असंभव जैसी कोई बात नहीं है पर हरिभद्रसूरि ने अपने प्रन्थों में चैत्यवासियों के शिथिलाचार के लिये फटकार कर लिखा भी है इससे कहा जा सकता है कि हरिभद्रसूरि सुविहित थे चैत्यवासी नहीं । हरिभद्रसूरि ने चैत्य के लिये विरोध नहीं किया था पर शिथिलाचार का ही विरोध किया था यह बात में पहले लिख आया हू कि चैत्य में ठहरने वाले सब शिथिलाचारी नहीं थे पर कइ सुविहित भी थे और उनमें कइ चैत्य में ठहरते थे तब कइ उपाश्रय में भी ठहरते थे पर चैत्य में ठहरने का विरोध कोइ नहीं करते थे विक्रम की ग्यारवी शताब्दी के पूर्व चैत्य में ठहरने का किसी ने भी विरोध किया हो मेरी जान में नहीं है । हरिभद्रसूरि ने समरादित्य की कथा में उनके पूर्व भावों का वर्णन में लिखा है कि साध्वियों के उपाश्रय में जिन प्रतिमाएं थी और उस मकान में ठहरी हुइ साध्वी को कैवल्य ज्ञान हुआ था यदि चैत्यवास ही अकल्पनिक होता तो उसमें ठहरने वाली साध्वी को केवल ज्ञान कैसे हो जाता ? जबकि भावनिक्षेप रूप स्वयं तीर्थङ्करों की मौजूदगी में मुनि उनके पास रहते आहार पानी क्रियाकाण्ड सब कुच्छ करते थे तब स्थापना निक्षेप रूप जिन प्रतिमा के पास मुनि ठहरते हो तो इसमें विरोध जैसी कोई बात ही नहीं है । आज हमारी चैत्यवास से रूची है इसका कारण चैत्यवासियों के प्राचार शिथिलता ही है इसके विषय मैंने एक "चैत्यवास" प्रकरही अलग लिखने का निश्चय किया है ।
हरिभद्रसूरि का समय हरिभद्रसूरि का समय के लिये पट्टावलियांदि पूर्वाचार्यों के प्रन्थों में लिखा हुआ मिलता है कि.
१२२६
पंचस पणसी विक्कम काले उक्तत्ति अत्थमिओं । हरिमद्दसूरिसूरो, भवियाणं दिस्तु कल्लाणं ॥”
श्रर्थात् विक्रम सम्वत् ५८५ में हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास हुआ था - वर्तमान में विद्वानों की शोध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
हरिभद्रसूरि का समय
www.jainelibrary.org