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वि० सं० ४८०-५२० वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
तत्पश्चात् शाह राजसी एवं धवल चतुर शिल्पज्ञ कारीगरों को लेकर आया सूरिजी ने अपने साधु धर्म की मर्यादा में रह कर जो उपदेश देना था वह दे दिया राजसी की इच्छा ९६ अंगुल की सुवर्ण मय भगवान महावीर की मूर्ति बनाने की थी, परन्तु सूरिजी ने कहा राजसी तेरी भावना और तीर्थङ्करदेव प्रति भक्ति तो बहुत अच्छी है पर दीर्घ दृष्टि से भविष्य का विचार किया जाय तो सुवर्णादि बहुमूल्य धातु की मूर्ति बनाना कभी आशातना का भी कारण हो सकती है कारण कई अज्ञानी जीव लोभ के वश मूर्तियों को ले जाकर तोड़फोड़ के पैसे कर लेते हैं यही कारण है कि पूर्व महर्षियों ने मणि की मूर्तियों को भण्डार कर सुवर्णादि धातुओं की मूर्तियां बनाई और इस पंचमआरे के लिये तो घातु पदार्थ को बंद कर पाषाण एवं काष्टादि की मूर्तियाँ बनाने का रखा है। राजसी ! जैन लोग सुवर्ण पाषाणादि के उपासक नहीं पर वीतराग देव के उपासक है मूर्ति चाहे सुवर्ण पाषाण काष्टादि की क्यों न हो पर उपासना करने वालों की भावना वीतगग की आराधना करने की रहती है हाँ कहीं कहीं भक्त लोग अपनी लक्ष्मी का ऐसे कार्यों में सदुपयोग करने की भावना से सुवर्णादि धातु पदार्थों की मूर्तियां बनाते भी हैं पर उनकी दृष्टि लेवल भक्ति की ओर ही रहती है उनके भावों का लाभ तो उनको मिल ही जाता है पर भविष्य का विचार कम करते हैं एक तरफ भारत में मतमतान्तरों की द्वन्द्वता दूसरे भारत पर विदेशियों का आक्रमण और तीसरा दिन दिन गिरता काल पा रहा है जो मन्दिर और मूर्तियों का प्रभाव एवं गौरव है वह अज्ञानी जीवों की आशानता से कम नहीं होता है पर बाल एवं भद्रिक जीवों के लिए श्रद्धा उतरने का कारण बन जाता है वे अपनी अल्पज्ञता से कह उठते हैं कि जिस देव ने अपनी रक्षा नहीं की वह दूसरों का क्या भला कर सकेगा ? यद्यपि यह कहना अज्ञान पूर्ण है कारण वीतराग की मूर्तियों रक्षा व रक्षण के लिये नहीं पर आत्म कल्याण के लिये ही स्थापित की जाती है इत्यादि सूरिजी ने भविष्य को लक्ष में रख राजसी को उपदेश दिया और यह बात राजसी एवं धवल के समझो भी आगई अतः उन्होंने अपने विचारों को मुल्तवी रख कर पाषाण की मूर्तियाँ बनाने का निश्चय कर लिया और चतुर शिल्पकारों को बुलवा कर सूरिजी की सम्मति लेकर मूल नायक शासनाधीश भगवान महावीर की १२० अंगुल की परकर अर्थत् अष्ट महाप्रतिहार्य संयुक्त मूर्ती बनाने का निश्चय कर लिया जो मूल गुम्भाग में एक ही मूर्ति रहै जिसको अरिहन्तों की मृत्ति कही जाती है बहुत सी मूर्तियां पहले से ही बन चुकी थीं । और भी जो शेष काम रहा था वह भी खूब जल्दी से होने लगा।
सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं आत्म कल्याण पर होता था जिस समय सृरिजी जन्म मरण के एवं संसार के दुःखों का वर्णन करते थे उस समय श्रोतागण कांप उठते थे जिसमें शाह राजसी का पुत्र धवल ने तो संसार से भय भ्रांत होकर सूरिजी के चरण कमलोंमें दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो ! आपका फरमाना सर्व सत्य है संसार दुःखों का घर है जब जीवों के स्वाधीन सामग्री होती है तब तो मोह में अन्धा बन जाता है जब अशुभ कर्मों का उदय होता है तब रोना पीटनादि केश में डबल कोपाजन कर लेता है अतः इस चक्रबाल संसार का कभी अन्त नहीं होता है गुरुदेव मैंने तो निश्चय कर लिया है कि मैं पूज्य के चरणों में दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करूँ जो पहिला उज्जैन में भी आपसे अर्ज की थी सूरिजी ने कहा धवल तू बड़ा ही भाग्यशाली हैं तेरी विचार शक्ति एवं प्रज्ञा बहुत अच्छी हैं धवल ! चाहे आज लो चाहे भवान्तर में लो पर पिना दीक्षा लिये सम्पूर्ण निवृति मिल नहीं सकती है और बिना निति आत्म कल्याण हो नहीं सकता है यही कारण है कि चक्रवर्ति जैसे ८.४
[ धवल का वैराग्य और मातपिता का समझाना
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