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वि० सं० ४४०-४८० वर्ष
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
ओर आ रहे थे जिन मन्दिरों में अष्ठलिहका महोत्सव हो रहा था वैरागी शोभन वगैरह बंदोले खा रहे थे जिनके वैगग्य के बाजे चारों ओर बज रहे थे एक करोड़पति सेठके सोलह वर्ष का पुत्र दीक्षा ले जिसको देख किसके दिल में वैराग्य नहीं आता हो नगरी के तो क्या पर कई बाहर से आये हुए महमानों को ऐस वैराग्य हो आया कि वे भी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । ठीक मुहूर्त पर ४२ नर नारियों के साथ शोभन को दीक्षा देकर सूरिजी ने शोभन का नाम सोमप्रभा रख दिया वाद मूर्तियों की अंजनसिलाका एवं प्रतिष्ठा करवाई इस पुनीति कार्य में मंत्रीश्वर ने पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य और साधर्मीभाइयों को पेहरामणि वगैरह देने में एक करोड़ रुपये व्यय किया। इस पुनीति कार्य से जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई थी मुनि सोमप्रभ क्रमशः धुरंधर विद्वान एवं सर्व गुण सम्पन्न हो गया आपके अखण्ड ब्रह्मचाचर्य और कठोर तपश्चर्य के प्रभाव से राजमहाराज तो क्या पर कई देवदेवियों भी आपके चरणों की सेवा कर अपना जीवन को सफल मना रहे थे यही कारण है कि आचार्य यक्षदेवसूरि ने उपके शपुर के श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक आपको आचार्य पद से अलंकृत बनाया था।
इस कलिकाल में सत्ययुग के सदृश कार्य बन जाना कुदरत से देखा नहीं गया भलो । क्रूर प्रकृति के कलिकाल में करीब ९०० वर्ष तक इस प्रकार का सम्प ऐक्यता के साथ हजारों साधु साध्वियों और करोड़ श्रावक श्राविकाएँ एक प्राचार्य की आज्ञा में चलना यह क्या साधारण बात है ? कलि के लिये ये एक वडी भारी कलंक एवं लज्जा की बातथी परन्तु इतने अ6 तक उसका कहाँ पर ही जोर नहीं चल सका। यह अपना दाव पेच खेलता रहा और छेन्द्र देखता रहा पर कहाँ है कि दुष्ठों का मनोरथ कभी कभी सफल हो ही जाता है यही कारण था कि भिन्नमाल में रहा हुआ मुनि कुंकुंद ने सुना कि उपदेशपुर में प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने पट्टपर उपाध्याय सोमप्रभ को आचार्य बना कर उसका नाम कक्कसूरि रखदिया और यक्षदेवसूरि का स्वर्गवास भी हो गया है अतः भन्न माल के संघ को इस प्रकार समझाया कि उन्होंने मुनि कुंकुद को आचार्य पद देकर उपकेशगच्छ की चिरकाल से चली आई मर्यादा का भंग कर दिया । जब इधर आचार्य ककसूरि ने यह समाचार सुना कि भिन्नमाल में मुनि कुकुद आचार्य बनगया तो अपको वडा ही विचार हुआ कि पूर्वाचार्य वडे ही भाग्यशाली हुए कि अपना शासन एक छत्र से ही चला कर शासन की उन्नति की जव में ही एक ऐसा निकला कि इस गच्छ में दो आचार्यों का नाम सुन रहाहु खैर भवितव्यतो को कौन मिटा सकता है परन्तु अब इस मामले को किस प्रकार निपटाया जाय कि भविष्य में इसके बुरे फल का अनुभव नहीं करना पड़े और गच्छ को नुकशान न पहुँचे। प्राचार्य कक्क सूरि ने अनेक
ओर दृष्टि लगा कर देखा जिससे यह ज्ञान हुआ कि जब एक बड़ा नगर का संघ ने आचार्य बना दिया है वह अन्यथा तो हो ही नहीं सकेगा । यदि मैं इसका विरोध करूँगा या संघ को उतेजित करूँगा तो यह नतीजा होगा कि मेरा उपदेश मानने वाले उनको प्राचार्य नहीं मानेगा पर इससे गच्छ में एवं संघ में फूट कुसम्य बढ़ने के आलावा कोई भी लाभ न होगा । कारण जब भिन्नमाल का संघ ने यह कार्य किया है तो वे उनके पक्ष में हो ही गये है दूसा कुंकुंदमुनि विद्धान भी है और करीब एक हजार साधु भी उनके पास में है इससे दो पार्टी अवश्य बन जायगी । इत्यादि शासन का हित के लिये आपने बहुत कुच्छ सोचा आखिर आपने आचार्य रत्नप्रभसूरि और कोरंट संघ एवं कनकप्रभसूरि का इतिहास की ओर अपना लक्ष पहुँचाया ओर यह निश्चय किया कि मुझे भिन्नमाल जाना चाहिये परन्तु इस विषय में देवी सच्चायिका की सम्मति लेनाभी आपने
[भिन्नमालका संघ और कुंकुंदाचार्य
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