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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
कि चांपानेर और पाटण के अरबपति और कई करोड़पतियों में से किसी ने भी एक पूरा वर्ष नहीं लिखाया हैं तब वह बाजरे की रोटी खाने वाला साधारण व्यक्ति कैसे एक वर्ष लिख सकता है ! संघ के लोगों ने खेमा के सम्मुख देखा तघ खेमा ने कहा कि श्राप तो भाग्यशाली हैं और आपको तो सदैव लाभ मिलता ही है । मैं एक छोटे से ग्राम का रहने वाला मुझे तो यह प्रथम ही अवसर मिला है कि श्राज श्रीसंघ ने मेरे घर को पवित्र बनाया है। श्राप प्रसन्नतापूर्वक इस वर्ष का लाभ मुझे दिलवाइये परन्तु बही चौपड़े में मेरा नाम न लिखें । पश्चात् शाह खेमा ने अपने घास के झोंपड़े में संघ वालों को लेजा कर अपना सारा खजाना, जेवरात आदि बतलाया । संघ वाले जेवरात देख कर चकित रह गये । खेमा का खजाना देख कर उसको शालिभद्र सेठ की स्मृति हो श्राई । बस । शाह खेमा को साथ लेकर सब लोग वापिस चांपानेर अाये और कई लोगों ने सूबा के पास जाकर कहा कि आपने जो श्राज्ञा दी उसमें कई लोगों ने भाग लेना चाहा किन्तु हमारे महाजनसंघ में एक ही शाह ने साग्रह सम्पूर्ण वर्ष का व्यय अपनी ओर से देना स्वीकार कर लिया है । सूबा ने संघ की बात पर विश्वास नहीं किया और कहा कि उस शाह को मेरे निकट लाओ अतः शाह खेमा को कीमती बढ़िया वस्त्राभूषणों से सुशोभित कर एक पालकी में बिठा बड़े ही समारोह से सूवा के पास लाये और संघनायकों ने सूबा से निवेदन किया कि एक वर्ष के लिये हमारी जाति का एक शाह ही सम्पूर्ण वर्ष में जितना नाज और घास चाहियेगा अकेला ही दे सकेगा जो आपकी सेवा में उपस्थित है । आपका नाम शाह खेमा है इत्यादि महाजनों में बोलने एवं षात वनाने का चातुर्य तो स्वाभाविक होता ही है । सूबा ने संघ वालों के मुंह से सारा हाल सुना और शाह खेमा को देखा तो उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा। सूबा ने शाह खेमा से वार्तालाप किया और तत्पश्चात् शाह खेमा की प्रशंसा की एवं सत्कार तथा सम्मान किया और कहा कि शाहजी आपको किसी वस्तु की एवं प्रबन्ध की आवश्यकता हो तो फरमाइयेगा । आपने बड़ा भारी कार्य करने का निश्चय किया है । इस पर शाह खेमा ने बड़ा अच्छा अवसर देख कर सूबा से निवेदन किया कि आपकी कृपा से सब काम हो जायगा । यदि आप मुझे कुछ देना चाहें तो मेरे गांव के पास पास बारह प्राम हैं वहां जीवहिंसा का निषेध कर देने का फरमान करदें सूबा ने सोचा कि शाह खेमा कितना परोपकारी है करोड़ों रुपये अपने गृह से व्यय करने को उतारू हुए हैं फिर भी अपने स्वार्थ के निमित्त कुछ न मांग कर जीव हिंसा का निषेध चाहते हैं यह भी परोपकार का ही कार्य है अतएव सूवा ने उसी समय सख्त फरमान लिख दिया और शाह खेमा को शिरोपाव ( वस्त्र विशेष ) के साथ फरमान प्रदान कर के अपने प्रधान पुरुषों को संग भेज कर शाह खेमा को विदा दिया । जैनकथासाहित्य में शाह खेमा का चरित्र अति विस्तार से लिखा है किन्तु स्थानाभाव के कारण मैंने यहां संक्षेप में ही परिचय दिया है।
इसी प्रकार एक बार देहली के बादशाह ने महाजन लोगों को बुलवा कर कहा कि हमें सोने के पाट ( स्तम्भ ) की आवश्यकता है अतः एक माह में पाट लाकर उपस्थित करो अन्यथा आप लोगों की शाह पदवी छीन ली जायगी "अाज भले इस शाह पदवी का मूल्य एवं गौरव नहीं रहा हो अथवा जिसके चित्त में पाया वही अपने नाम के पूर्व शाह शब्द लगा देते हों परन्तु उस काल में इस पदवी का बड़ा भारी गौरव समझा जाता था।"
स्त्रैर इसके लिये महाजन बादशाह का कथन स्वीकार करके अपने स्थान पर आये और विचार करने लगे कि सोने के पाटों की रकम का तो अभी कोई प्रश्न ही नहीं है यदि जवाहिरात मांगी होती तो इससे आचार्य देवसरि का विहार
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