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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भी अधिक देदी जाती परन्तु मोना इतना कहाँ से लायें । दूसरे, बादशाह ने पाटों की संख्या भी तो नहीं बतलाई न जाने कितने पोट माँगेंगे । खैर ! महाजनों ने अत्यन्त गहन विचार करके निश्चय किया कि यह कार्य तो इष्ट बली मनुष्य ही पूर्ण कर सकेगा। अतः देहली से पाँच अप्रेश्वर निकल गये और प्रामोप्राम इष्टबली व्यक्ति की शोध करते जा रहे थे राह में एक स्थान पर पता चला कि गुढ़ नगर में आर्य जाति का शाह लूना बड़ा ही इष्टबली है और चारणी देवी का उन्हें इष्ट है। बस ! वे पाँचों अप्रेश्वर चल कर साह लूना के पास आये और सारा वृतान्त कह सुनाया। इस पर शाह लना ने कहा ठीक है । इसमें ऐसी फौनसी बड़ी बात है जब तक महाजन का एक बच्चा रहेगा तब तक तो महाजनों की शाह पदवी को कोई नहीं छीन सकेगा। पदवी की रक्षा माताजी करेंगी। आप पूर्ण विश्वास रखें
उसी दिवस रात्रि में शाह लूना ने अपनी इष्टदेवी का स्मरण किया अत: तत्क्षण देवी श्राकर उप. स्थित हुई और लूना से कहा कि कल पार्श्वनाथ प्रक्षालन करवा कर तुम्हारे मकान के पृष्ठ भाग में जितने काष्ठ के पाटादि लकड़े रक्खे हैं उर पर प्रक्षालन का जल छिड़कवा देना तुम्हारा मनोरथ सफल हो जायगा बस ! इतना कह कर देवी तो अदृश्य हो गई और शाह लूना ने प्रातः होते ही देवी के कथनानुसार प्रमु प्रतिमा का प्रक्षालन करवा कर उस प्रक्षालन के जल को देवीके बतलाये हुए काष्टादि पाटों पर छिड़का बस ! फिर तो था ही था । देवी के कथनानुसार सब लकड़ स्वर्णमय बन गये । अतः शाह लूनाने संघ नायकों को ले जाकर बतलाया कि आपको कितने पाटों की आवश्यकता है ? श्रावश्यकीय पाट इन स्वर्णमय पाटों में से ले लीजिये। संघ नायकों ने सोचा कि अभी महाजन संघ के पुण्य प्रबल हैं। भाग्य रवि मध्याह्न में तप रहा है । उन्होंने शाह लूना की भूरि प्रशंसा की और कहा कि अपने पूर्वजों ने जो शाह पदी प्राप्त की थी उसकी रक्षा का सारा श्रेय आप ही को है शाह लूना ने कहा कि मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूँ परन्तु श्राप लोग धन्यवाद के पात्र हैं कि आपने इस पदवी के गौरव को स्थाई रखने और उसकी रक्षा के निमित घर का सारा कार्य त्याग कर सफल प्रयत्न करने को कमर कसी हैं यह जो कार्य सफल हुआ है यह भी श्रीसंघ के ही पुण्य बल से बना है। इसमें मेरी थोड़ी भी प्रशंसा का स्थान नहीं है । अहा ! हा ! वह कितनी निरभिमानता का समय था कि दोनों ओरसे मान न करते हुए श्रीसंघ के पून्यों का ही अनु. मोदन करते रहे ! खैर । देहली के अप्रेश्वर सत्वर चल कर देहली आये और बादशाह के पास उपस्थित होकर निवेदन किया कि सोने के पाट मौजुद तैयार हैं। आपको कितने पाट किस नमूने के चाहिये । ताकि उत्तने ही पाट मँगवा दिये जॉय । इत्यादि । बादशाह ने सोचा कि महाजन लोगो में बुद्धि विशेष होती है केवल वनावटी बाते ही बनाते होंगे क्या यह भी कभी संभव है कि सोने के पाट किसी के यहाँ जमा रक्खे हों अतएव बादशाइ स्वयं ही पाटों को देखने के लिये तत्पर हो गया। बादशाह खूब सजधज कर उन संघ नायको के साथ२ चलकर शाह लूनाके गृह पर आये । जब शाह लूना की सूरत देखी तो बादशाह को संघ की बात पर विश्वास नहीं आया और समझा कि यह क्या स्वर्ण के पाट दे सकेगा ? परन्तु जब मकान के पीछे लेजाकर बादशाह को उन पड़े हुए स्वर्णमय पाटों को दिखलाया गया तो बादशाह देख कर मन्त्र मुग्ध सा बन गया और सोचने लगा की वास्तव में महाजन लोग ही इस पदवी के योग्य हैं जो कार्य बादशाह नहीं कर सकते वे कार्य भी शाह तर सकते हैं शाह लना और देहली के महाजनों की प्रतिष्ठा बढ़ाई, खूब सम्मान किया । शाह लूना ने बादशाह को भोजन करवाया बादाशाह प्रसन्न होकर शाह लूना को कहा शाहजी आप १२७४
शाह लूनाशा के चारणी देवी का इष्ट
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