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________________ वि० सं०८९२-६५२ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ने शिकार के लिये बाण फेंका । भाग्यवशात् वह बाण स्थण्डिल भूमिकार्थ बैठा हुआ साधु की जंघा से प्रार पार निकल गया। साधु भी तीर की भयङ्कर पीड़ा से अभिभूत हुआ वहीं पर मूर्छित हो गिर पड़ा। जब दूसरे साधु ने आकर मूर्छित साधु को देखा तो बाण फेंकने वाले असावधान शिकारी राजपूत पर उसे बहुत ही क्रोध आया। क्रोधावेश में मुनि ने दो चार शब्द अत्यन्त ही कठोर कह दिये । अब तो क्षत्रिय का चेहरा भी तमतमा उठा । अपराध स्वीकार करने के बदले उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया-जाओ तुम चाहो सो कर सकते हो। यह मुनि यहां क्यों बैठा था। मैं कुछ भी नहीं जानता। यदि तुमने भी ज्यादा किया तो दूसरे बाण से तुमको भी घायल कर दूंगा । इत्यादि साधु सीधा वहां से रवाना हो आचार्यश्री के पास श्रा गया और मूर्छित साधु के विषय का सब हाल कह सुनाया। सूरिजी ने कहा मुनियों ! जैन धर्म के स्वरूप को ठीक समझो। इस साधु के असातावे. दनीय कर्भ का उदय था । बाण वाला तो केवल निमित्त कारण ही था। मुनि ने कहा-पूज्य गुरुदेव । आपका कहना तो सर्वथा सत्य है पर क्षत्रिय लोग उदंडता से अत्याचार कर रहे हैं उनको भी तो किसी न किसी तरह रोकना चाहिये । भगवन् ! यदि क्षत्रियों को इस निष्ठुरता या नृशंसता पूर्ण क्रूरता के लिये कुछ भी न दी जायगी तो दसरे साध साध्वियों का इधर विचरना भी कठिन हो जायगा । वे हर एक मुनि के प्रति इस तरह का दुष्ट व्यवहार करने में नहीं हिचकिचावेंगे । आचार्यश्री को भी मुनि का उक्त कथन अक्षरक्ष वास्तविक ज्ञात हुआ। वे भी इसका सफल उपाय सोचने में संलग्न होगये।। इधर शिवगढ़ निवासी महाजनसंघ को मनिराज की मर्जितावस्था का सब हाल कर्णगोचर हा तो उन लोगों के क्रोध एवं दुःख का पार नहीं रहा । शिवगढ़ के जैन अशक्त किंवा बणिकोचित संग्राम भीरु नहीं थे। वे क्षत्रियों का सामना करने में बड़े ही बहादुर एवं शरवीर थे। उनकी संख्या भी शिवगढ़ में कम नहीं थीं। श्रेष्टि कहलाने वाले वे धर्मानुयायी ओसवाल जैसे संख्या में अधिक थे वैसे वीरता में भी बड़े प्रसिद्ध थे । उनको तीक्ष्ण तलवार चलाने की दक्षता ने बड़े २ युद्धविजयी योद्धाओं को घबरा दिया था। क्षत्रियत्व का अभिमान रखने वाले राजा लोग भी उन्हें लोहा मानते थे। अतः धर्मावहेलना से दुःखित हृदय वाले महाजनसंघ की कोपान्वित अति भयकर स्थिति होगई । दोनों ओर दो पार्टिये बन गई एक ओर अहिंसाधर्मोपासक जैन महाजनसंघ था तो दूसरी ओर क्षत्रिय वर्ग । इस साधारण वार्ता के इस भीषण स्थिति में पहुंच जाने पर भी महाजनों ने क्षत्रियों से कहा-आप लोग, आप लोगों के द्वारा किये गये अपराधों के लिये आचार्यश्री से क्षमायाचना कर लेवें तो इसका निपटारा शान्ति से हो जायगा पर वीरत्व का अभिमान रखने वाले क्षत्रियों को यह स्वीकार करना रुचिकर नहीं ज्ञात हुआ अतः वे तो संग्राम के लिये ही उद्यत होगरे । परिणाम स्वरूप इसका निपटारा तलवार की तीक्ष्ण धार पर आपड़ा। आचार्यश्री के सामने तो दोनों ओर की विकट समस्या आ पड़ी। इधर एक मुनि के लिये परस्पर रक्तपिपासु होना उन्हें उचित्त ज्ञात न हुआ तो उधर शासन की लघुता व जैनियों की अकर्मण्यता भी भविष्य के लिये घातक ज्ञात हुई। इस विकट उलझन में उलझे हुए आचार्यश्री ने रात्रि में देवी सच्चायिका का स्मरण किया और देवी भी अपने कर्तव्यानुसार तत्काल प्राचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होगई । देवी ने वंदन किया और सूरिजी ने धर्मलाभ देते हुए कहा-देवीजी ! यहां बड़ी ही विकट समस्या खडी हुई है अब इसका निपटारा किस तरह किया जाय । देवी ने उपयोग लगा कर कहा-गुरुदेव ! इस विषय में आपको किसी तरह से चिन्ता करने की अवश्यकता नहीं । यह मामला तो प्रातःकाल ही शान्ति पूर्वक सानन्द निपट जायगा । आप परम भाग्यशाली हैं आपको तो इस मामले में सुयश-लाभ ही मिलेगा। इतना कह कर देवी तो बन्दन कर स्वस्थान चली गई । इधर क्षत्रियों ने रात्रि में मांस पकाया । अकस्मात् उसमें किसी जहरी ले जानवर का जहर भी मिल गया। रात्रि में आसल, कज्जल प्रभृति सकल क्षत्रिय समुदाय ने उस अभक्ष्य १३६० छाजेड़ जाति की उत्पत्ति का वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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