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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० २०६०-१०८०
आत्म कल्याण कर सकेंगे। पर जिसको वैराग्य का दृढ़ रंग लग गया उसको ऐसी बातें कैसे रुचिकर हों ? खेमा की भी यही हालत हुई। उसने सेठजी के एक वचन को भी स्वीकार नहीं किया अनन्योपाय, सेठ जी ने अपनी पत्नी ' कहा -- प्रिये । क्या देवी के कहे हुए वचनों को भूल गई हो ? सेठानी ने कहा- नहीं । सेठ ने कहा फिर रोने की क्या बात है ? यदि पुत्र मोह छूटता नहीं है तो तुम भी पुत्र के साथ दीक्षित होकर आत्मकल्याण करो। मैं भी दीक्षा के लिए तैय्यार ही हूँ । बस बातों ही बातों में सेठजी व सेठानीनी पुत्र के साथ दीक्षा लेने के लिये उद्यत होगये । जब यह बात नगरी में हवा के साथ फैलती गई तो सकल नगर निवासियों को अत्यन्त श्राश्वर्य एव ं हर्ष हुआ कई लोगों ने सेठजी को धन्यवाद दिया और कई लोग तो सूरिजी के व्याख्यान एवं सेठ जी के त्याग से प्रभावित हो दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गये । सेठ सत्लखण ने अपने द्रव्य से नव लक्ष रुपये अपनी दीक्षा महोत्सव के लिये रखकर श्रावाशिष्ट द्रव्य को स्वधर्मी भाईयों की सेवा तथा सात क्षेत्रों में जहाँ आवश्यकता देखी वहाँ सदुपयोग किया ।
शुभ मुहूर्त में सेठ, सेठानी, खेमा और दूसरे भी २७ नर नारियों ने आचार्यदेव के कर कमलों भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की । सूरिजी ने उन मुमुक्षुत्रों को दीक्षित कर खेगा का नाम मुनिदयारत्न रख दिया। मुनि दयारत्र पर सरस्वती देवी की तो पहिले से ही कृपा थी । पूर्व जन्म में ज्ञान की अच्छी आराधना भी की होगी यही कारण था कि-मुनि दयारत्न ने कुछ ही समय में जैनागमों का श्रद्धा मध्ययन कर लिया । वे जैन साहित्य के प्रकाण्ड - अनन्य विद्वान् हो गये । जैनागमों के अध्ययन के साथ ही न्याय, व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकारादि वाङ्गभय साहित्य का भी गहरा अभ्यास करते रहे श्रवः नाना शास्त्र विचक्षण होने में कुछ भी देर न लगी । विद्वत्ता के साथ ही साथ आपके मुखमण्डल पर ब्रह्मचर्य का भी अपूर्व तेज दीखने लगा । बाल ब्रह्मचारी होने से आपके अखण्ड ब्रह्मचर्य की कांति एवं तपस्तेज की भव्यप्रभा सूर्य के किरणों की तरह प्रकाशमान होने लगी। बही कारण है कि श्राचार्य सिद्धसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में मुनि दयारत्न को आचार्यपद से सुशोभित कर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया ।
आचार्य कक्कसूरिजी महान् विद्वान् प्रौढ़ प्रतापी ए धर्मवीर श्राचार्य हुए हैं। आपकी प्रतिभा सम्पन्न विद्वता की छाप सर्वत्र विस्तृत था । आपका विहार क्षेत्र अत्यन्त विशाल था । एक समय सूरीश्वरजी ने नागपुर से विहार कर सपादलक्ष प्रदेश में पर्यटन कर, सर्वत्र धर्मोपदेश करते हुए क्रमशः शाकम्भरी नगरी की
र पदार्पण किया जब शाकम्भरी श्रीसंघ को ये शुभ समाचार मिले कि आचार्य देव, शाकम्भरी पधार रहे रहे हैं तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा । श्रेष्टि गोत्रीय शा. गोपाल ने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया । सूरिजी ने मंदिरों के दर्शन कर धर्मशाला में पधारे वहां श्रागत जन समाज को संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित देशना दी। उपस्थित जनता पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ा । इसी तरह प्रतिदिन आचार्य देव के व्याख्यान का क्रम प्रारम्भ रहा । सर्वत्र आपके व्याख्यान शैली की प्रशंसा फैल गई कारण, आपके व्याख्यान बांचने का ढंग इतना सरस, अलौकिक, एवं प्रभावोत्पादक था कि साधारण समाज व विद्वद् समाज समान रूप से उसका लाभ उठा सकती । जैन व जैनेतर आपके ब्याख्यान को श्रवण कर मन्त्र मुग्ध हो रहजाते थे ।
एक दिन वहां के शासन कर्ता राव गेंदा, अपने मन्त्री जैसल से सूरिजी के उपदेश की तारीफ सुनकर - व्याख्यान सुनने की प्रबल इच्छा से सूरीश्वरजी की सेवा में उपस्थित हुए । सूरिजी बड़े समयज्ञ थे
मादि २७ भावुकों को दीक्षा
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