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________________ वि० सं० ६६०-६८.] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बतलाया है । अतः एहिक, पारलोकिक, आत्मिक सुखों के अभिलाषियों को सुख प्राप्त करने के लिये निर्मल चारीत्र की आराधना करना चाहिये । यह तो आत्मिक सुखों की बात कही पर वाम भावों से दीक्षा पालन करने वाले जीव भी संसारी जीवों की अपेक्षा हजार गुने सुखी है । देखिये १ संसार में किसी के एक, दो, या दश. बीस पुत्र होते हैं। इतने पर भी गृहस्थी को उन पुत्रों से शायद ही सुख हो कारण, गार्हस्थ्य सम्बन्धी चिन्ताएं एवं पुत्र का कपूत पना उसे सदा ही सन्तापित करता रहता है पर साधु अवस्था में सैकड़ों पुत्र प्रामोग्राम प्राप्त हो जाते हैं, वे भी विनयी और आज्ञा पालक ।। २ संसार में दो चार शाक किंवा किसी दिन विशिष्टि भोजन की प्राप्ति हो जाति है पर मुनिवृत्ति में तो सेकड़ो धरों की गौचरौ और सैकड़ों ही विशिष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं। आये हुए श्राहार को अमृत माने है । ३ संसार में रहते हुए संसारी जीव अपना जीवन एकही प्राम किंवा एक घर में समाप्त कर देते हैं किन्तु साधुत्व जीवन में सैकड़ों ग्राम नगर में पर्यटन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। नवीन २ मनुष्यों के एवं नवीन २ शहरों के संसर्ग में अनेक नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं। ४ संसारावस्था में रहते हुए तो कोई किसी का हुक्म माने या न माने पर चारित्र वृत्ति की आराधना करते हुए तो हजारों, लाखों भक्त लोग खमा-खमा कर के सहर्ष मुनियों के आदेश को शिरोधार्य करते हैं। ५ संसार में तो राजा आदि हर एक व्यक्ति की गुलामी में पराधिन रहना पड़ता है पर संयमित जीवन में तो राजाओं के भी गुरु कहलाते हुए निवृत्ति मार्ग में सदा स्वतंत्र रहते हैं। ६ संसार में धनाभाव के कारण उसकी प्राप्ति एवं रक्षा के लिये सदा चिंतन रहना पड़ता हैं; कहा है-"पुव्वावि दंडा पछावि दण्डा" तब इसके विपरीत दीक्षा में निर्मिक एवं संतोष पूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ता है। ७ संसार में ध्येय होता है-कुटुम्बादि का पालन पोषण करके कर्मापार्जन करने का तब, दीक्षा में हजारों जीवों का आत्म कल्याण करने के साथ अपनी प्रास्मा का उद्धार करने का प्रमुख लक्ष्य होता है। बन्धुओं ! अब आप स्वयं समझलें कि सुख संसार में है या दीक्षा में । इस तरह सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा विस्तार से उपदेश दिया। इसका असर उपस्थित जनता पर तो हुश्रा ही किन्तु खेमा पर इसका विचित्र ही प्रभाव पड़ा वह निद्रा में से जागृत होते हुए व्यक्ति के समान एक दम सचेतन होगया। व्याख्यान समाप्त होते ही खेमा ने घर आकर अपने माता पिताओं को कहा-कृपा कर मुझे आशा प्रदान करें कि मैं सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर अपना आत्म कल्याण करू । पुत्र के वैराग्य मय शब्दों को सुनकर माता मूर्छित हो भमि पर गिर पड़ी जब जल और यु के उपचार से उसे सचैतन्य किया तब देवी के कहे हुए बचन रह २ कर उसके दुःख के वेग को बढ़ाने लगे। उसने खेमा को समझाने का बहुत ही प्रयत्न किया किन्तु कृतयत्न सब निष्फल रहा। खेमा तो आज्ञा के प्रश्न को और भी वेग पूर्वक आगे बढ़ाने लगा। माता देवी के वचनों के द्वारा जानती थी किन्तु मोहनी कर्म रह २ कर उसे, खेमा को संसार में रखवाने के लिये बाधित करने लगा। इधर से सेठजी भी वहां आगये । अपनी स्त्री को पुत्र के भावी वियोग के कारण विलाप करते हुए देख उन्होंने भी खेमा को बहुत समझाया वे कहने लगे-बेटा! अभी तो तेरा विवाह करना है । अभी से दीक्षा लेने में कुछ लाभ नहीं है । फिर मुक्त भोगी हो कर दीक्षा लेना तो, तेरे साथ ही साथ हम भी अपना संयम सुख और संसार के सुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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