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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्षं ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की पारी को छोड़ अति दूर आवंति प्रदेश में जाकर इतना बड़ा दान केवल दीपक के लिए कभी नहीं देता । दूसरी शाह ने एक बात और भी लिखी है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त ने विदिशा नगरी के पास सांचीपुर में एक राजमहल बनाया था और वर्ष भर में कुछ समय इस निर्वृति स्थान में आकर रहता भी था इससे भी यही सिद्ध होता है कि सांचीपुर के स्तूप जैनों के लिये एक तीर्थधाम अवश्य माना जाता था कारण मगद जैसे दूर देश में रह कर भारत का राजतंत्र चलाने वाला एक सम्राट् राजमहल बना कर निर्वृति स्थान में रहे वह विशेष तीर्थ धाम अवश्य होना चाहिये इतिहास से यह भी पता मिलता है कि सम्राट् अशोक भी सांचीपूर की यात्रार्थ आया था उस समय विदिशा नगरी धन धान्य से समृद्ध एवं व्यापार की बड़ी मंडी थी इतना ही क्यों पर विदिशा के एक व्यापारी सेठ की कन्या के साथ सम्राट् अशोक ने विवाह भी किया था शायद कोई व्यक्ति यह सवाल करे कि अशोक बौद्ध धर्मी था वह जैन तीर्थ की यात्रार्थ कैसे आया होगा ? उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सम्राट् अशोक के पिता बिन्दुसार और पितामाह सम्राट् चन्द्रगुप्त कट्टर जैन धर्मोपासक थे अतः उनके घर में जन्म लेने वाला पुत्र जैन हो इसमें नई बात नहीं समझी जाती है हाँ बाद में अशोक बौद्ध धर्म का स्वीकार किया था यदि बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पूर्ण अशोक सांचीपुरी यात्रार्थ गया हो तब तो कोई सवाल ही नहीं है यदि बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद भी गये हो तो भी उनके पिता पितमाहा का धर्म तीर्थ पर जाय इसमें कोई विरोध की बात नहीं तथा अशोक बौद्ध होने पर भी जैन श्रमणों का अच्छा आदर सत्कार करता था अतः अशोक का सांचीपुर यात्रार्थ जाना यथार्थ ही था । देखिये - प्रोफेसर कर्न लिखते हैं । "His (Asoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agree much more closely with the ideas of heretical gains than those of the Buddhist. १ -- कल्हण कवि जो ग्यारवीं शताब्दी का विद्वान अपनी संस्कृत भाषा की राजतरंगिण नामक ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में लिखा है कि अशोक ने कश्मीर में जैन धर्म का अच्छा प्रचार किया "य: शान्तवृजिनो राजा प्रपन्नोजिनशासनम्, शुष्कलेऽत्र वितस्ताचो तस्तर स्तूप पण्डले " The Bhilsa topes. P. 154 :-- His (Chandragupta's gift to the Sanehi tope for its regular illumination and for the perpetual service of the sharamans or ascetices was no less a sum then twenty-five thousand Dinnars ( £ 25000 is equal to two lacs and a half rupees ) Chandragupta was a member of the Jain community (from R. A. S. 1887 P. 175 Ín:--- आगे चल कर यह भी कहा गया है कि 'जगचिन्तामणि' चैत्यवन्दन में 'जय उवीर सच्च उरि मण्डया' ऐसा उल्लेख आया है जगचिन्तामणि' का चेत्यवन्दन गणधर गौतम स्वामी ने अष्टापद की यात्रा के समय निर्माण किया था शायद् 'जयउसामि' वाला पाठ पिच्छे भी मिलाया हो तो भी उसके प्राचीन होने में तो किसी प्रकार का सन्देह नहीं हो सकता है इस चैत्यवन्दन में सच्चाउरि मण्डण महावीर का तीर्थ को नम - स्कार किया है उस संचउरि को मारवाड़ का साचौर ही समझा जाता था । कारण वहाँ महावीर का मंदिर है और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य जिनप्रभसूरि ने अपने विविध तीर्थ कल्प में मारवाड़ के साचौर का ९९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only सम्राट अशोक को जैन www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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