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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२० - ९५८ गया था और कई जैन शास्त्रों में तो यहां तक भी लिखा मिलते है कि आचार्य सुहस्तिसूरि ने राजा सम्प्रति को जैनधर्म की दीक्षा विदिशा नगरी में ही दी थी जैसे कि " अण्णाय आयरिय वितिदिसं जियपडिमं वंदिया गतः तत्थ रहगुज्जाते रण्णा घरं रहवरि ति संपतिरण अलइय गएण अज्जसुहत्थी दिट्ठों जाइसरण जातं आगच्छे पडितो पच्चट्टिओ विणओणओ भांति भयवं अहंतेहिं दिट्ठों ? सुमरह | आयरिया उपउत अमंदिठो तुमं मम सिसो आसी पूव्व भवो कहीतो आउठो धम्मं पडिवणो अतिव परस्परंणे जातो" " निशीथ चूर्णि” इस लेख से पाया जाता है कि आचार्य सुहस्तिसूरि ने सम्राट् सम्प्रति को सबसे पहला जैनधर्म की दीक्षा विदिशा नगरी में ही दी थी। पर कई-कई स्थानों पर उज्जैनी नगरी भी लिखी मिलती है। इसका कारण यह हो सकता है कि राजा सम्प्रति का वर्णन बहुत करके उज्जैन नगरी के साथ ही आया करता है अतः लेखकों ने उज्जैन नगरी का ही उल्लेख कर दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । अब इस बात को देखना चाहिये कि राजा सम्प्रति उज्जैन नगरी को छोड़ अपनी राजधानी विदिशा क्यों लेगया होगा ? कारण बिना कोई खास कारण के उज्जैनी जैसी प्रसिद्ध नगरी छोड़ी नहीं जा सकती है । जिसमें भी राजा सम्प्रति का जन्म उज्जैनी में तथा उज्जैन में रहकर सौराष्ट्र एवं महाराष्ट्र जैसे देशों पर विजय की और भी भारत का राजतन्त्र चलाने में उज्जैन नगरी सर्व प्रकार से अनुकूल होने पर भी विदिशा नगरी में राजधानी क्यों ले गया था ? इसके लिये कोई जबरदस्त कारण अवश्य होना चाहिये ? इन सब बातों का विशेष कारण सांचीपुरी के स्तूपों का संचय एवं भ० महावीर का सिंह स्तूप ही हो सकता है । इस विषय में डा० त्रिभुवनदास लेहरचन्द शाह बड़ोदा वाला अपना 'प्राचीन भारत वर्ष' नामक पुस्तक में अनेक दलीलों और प्रमाण एवं युक्तियों के साथ लिखा है कि भ० महावीर का निर्वाण इसी स्थान पर हुआ था और आपके शरीर का अग्नि संस्कार के स्थान पर ही यहां भक्त भावुकों ने सिंहस्तूप बनाया था और यह स्तूप स्थल विदिशा नगरी के ठीक पास में आने से विदिशा का एक पूरा एवं वास तरीके समझा जाता था जैसे विदिशानगरी के नाम वेशनगर पुष्पपुरनाम थे वैसे ही सांचीपुर भी एक नाम था और इस धाम तीर्थ की यात्रार्थ बड़े २ जैनाचार्य यात्रार्थ श्राया करते थे जैसे श्रर्थ्य महागिरी और सुहस्तीसूरि श्राये थे इनके अलावा शाह यह भी लिखता है कि सर कनिंगहोम के मतानुसार मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त ने सांचीपुर के स्तूप में दीपकमाल हमेशा होती रहे उसके लिये पचवीस हजार सोना मुहरों का दान दिया था जिसके करीबन पांच लक्ष रुपये हो सकते हैं इस रकम के ब्याज में उस स्तूप में हमेशा दीपक किये जाय इससे पाया जाता है कि वहां कितनी बड़ी संख्या में दीपक होते होंगे ? यही बात हमारे कल्पसूत्र और दीपमालका कल्पादि ग्रंथों में लिखी हुई मिलती है कि भगवान् महावीर का कार्तिक अमावस्या की रात्रि में निर्वाण हुआ था उस समय भक्त लोग ने सोचा कि आज भाव उद्योत चला गया है अतः हम दोपक्रमाला करके द्रव्य उद्योत करेंगे और ऐसा ही उन्होंने किया तथा यह प्रवृति एक दिन के लिए तो अद्यावधि भी चली श्र रही है यदि उस समय भक्त लोगों ने हमेशा के लिये दीपक करते हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है सन्नाट् चन्द्रगुप्त ने इतनी बड़ी रकम सदैव दीपक के लिये ही दी होगी । यदि वर्तमान में मानी जाने बाली मगद देश की पावापुरी में ही भ० महावीर का निर्वाण हुआ होता तो मगद का सम्राट् मगद देश भ० महावीर का निर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only ९९७ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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