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________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हुई । इस प्रकार अनेक वादों को जीत करके देवसूरि ने शासन के गौरव को अक्षुण्ण रक्खा । देवसूरि वाद विवाद में सिद्ध हस्त थे । चौरासी वादों में विजय प्राप्त करने से आप वादी देव सूरि के नाम से विख्यात हुए । आप विद्या मन्त्र एवं कई प्रकार की लब्धियों में निपुण थे । जैनधर्म के उत्कर्ष के लिये आप कमर कस करके तैय्यार रहते थे। आपश्री ने स्याद्वाद रत्नाकर नामक महान् ग्रन्थ का निर्माण कर अखिल विश्व पर महान उपकार किया । अन्त में आप अपने पट्टपर भद्रेश्वर सूरि को स्थापित करके वि० सं० १२२६ श्रावण कृष्णा सप्तमी के दिन स्वर्ग वासी हो गये।। आपका जन्म ११४३ में हुआ दीक्षा ११५२ में अङ्गीकार की, सूरिपद ११७४ में प्राप्त हुआ और स्वर्गवास १२२६ में हुआ । सवार्युः ८३ वर्ष का पूर्ण किया । ___ प्राचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि ___ क्लेश के आवेश से रहित गुर्जर प्रान्तमें अणहिल्लपुर नाम के एक विख्यात नगर है जिसके अन्तर्गत धुंधका नाम का एक अत्यन्त रमणीय प्राम था जहां पर मोढ़ वंशीय चाच नामके सेठ निवास करते थे। श्राप श्री की परम सुशीला धर्मपरायणा धर्मपत्नी का नाम पाहिनी था । एकदा माता पाहिनी ने स्वप्न में चिन्ता मणि रत्न देखा और भक्ति के आवेश में उसने वह रत्न अपने गुरु को दे दिया। इस प्रकार का स्वप्न देख सेठानी हर्ष के मारे फूल्ल गई। वहां पर चद्रगच्छ रूप सरोवर में पद्मसमान अनेक गुणों से सुशोभित श्रीदेवचन्द्रसूरि विराजमान थे जो प्रद्युम्नसूरि के शिष्य थे। प्रातःकाल होते ही पाहिनी ने उस दिव्य स्वप्न को अपने गुरु की सेवा में निवेदन किया तब गुरु ने शास्त्र विहित अर्थ बताते हुए कहा-'हे भद्रे ! जिन शासन रूप महासागर में कौस्तुभमणि के समान तुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी जिसके सुचरित्र से आकर्षित हो देवता भी उसका गुणगान करेंगे।" कालान्तर में पाहिनी को श्री वीतराग बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाने को दोहला उत्पन्न हुआ जिसको सुनकर श्रेष्ठी ने प्रमोद पूर्वक पूरा किया । समय के पूरे होने पर माता पाहिनीने शुभनक्षत्र में रत्नवत् अलोकिक पुत्र रत्न को जन्म दिया जिसके कई महोत्सव मनाये गये और कुटुम्बों की सलाह के अनुसार बारहवें दिन सान्वय 'चंगदेव' नाम स्थापित किया गया। क्रमशः द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ते हुए चङ्गदेव को पांचवे वर्ष में ही सद्गुरु की सेवा करने की इच्छा उत्पन्न हुई। परिणामतः एक दिन मौढ़ चैत्य में देव चन्द्रसूरि चैत्यवंदन कर रहे थे कि उसी समय माता पाहिनी पुत्र सहित मंदिर में आई । वह प्रदक्षिणा देकर भगवान् की स्तुति कर रही थी कि चंगदेव गुरु के आसन पर जा बैठा। इस कौतूहल को देख कर गुरु ने कहा-भद्रे ! वह महा स्वप्न तुझे याद है या नहीं ? देख यह निशानी उस स्वप्न के फल की भावी सूचिका है । इस प्रकार कहने के पश्चात् गुरु ने माता के पास से पुत्र की याचना की तब पाहिनी ने कहा- प्रभों! आप इसके पिता के पास से याचना करें यह युक्त है । इस पर गुरु कुछ नहीं बोले तब पाहिनी ने उस स्वप्न का स्मरण करके गुरु के बचनों को अनुलंघनीय समम स्नेहसे दुःखित हृदय वाली भी उसने अपने प्यारे पुत्र को गुरु महाराज के चरणों में अर्पण कर दिया । गुरुदेव भी चंगदेव को लेकर के स्तम्भन तीर्थ पर आये। वहां पार्श्वनाथ मन्दिर में माघमास की शुक्ल चतुर्दशी के दिन ब्राह्ममुहूर्त में और शनिवार के दिन आठवें धिष्ण्य Jain Education International For Private & Personal use only आचार्य हेमचन्द सरि का जीवन www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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