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प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
मैं दृढ़ता पूर्वक वादी को परास्त कर दूंगा।
वि० सं० ११८१ के वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन वाद प्रारम्भ हुआ। राजानीतिज्ञ राजाने निर्दिष्ट स्थान व समय पर दोनों वादियों को आमन्त्रित किया । दि० कुमुदचन्द्राचार्य छत्र, चंदर आदि मान्बर के साथ सुख पालकी में बैठ कर वादस्थल में आये । प्राचार्य देवसूरिको न देख करके वे कहने लगे कि क्या श्वेताम्बराचार्य पहिले ही से डर गया जो सभा में हाजिर न हुआ । इतने में देवसूरि भी आ गये । देवसूरि को देखकर दिगम्बराचार्य बोला कि बेचारे श्वेताम्बर मेरे सामने कितनी देर तक ठहर सकेंगे । देवसूरि ने कहावाग्युद्ध में तो श्वान भी विजय प्राप्त कर सकता है ।
इतने थाहड़ और नागदेव नाम के दो श्रावक आये । वे कहने लगे पूज्य आचार्य देव ! मैंने आपसे प्रार्थना की थी उससे भी दुगुना द्रव्य व्यय करने को तैयार हूँ । सूरिजीने कहा-अभी द्रव्य व्यय की श्रावश्यकता नहीं है कारण, आज रात्रि में ही गुरुवर्य श्राचार्यश्री चन्द्रसूरिजी ने स्वप्न में मुझे कहा है कि वाद में स्त्री निर्वाण का विषय लेना और वादी वैताल शांतिसूरि ने उत्तराध्ययन की टीका में जैसा वर्णन किया है उसके अनुसार ही वाद करना सो तुम्हारी विजय होगी ।
महर्षि उत्साहसागर और प्रज्ञावन्त राम राजा की ओर से सभासद । भानु और कवि श्रीपाल देवसूरि के पक्षकार । तीन केशव नाम के गृहस्थ दिगम्बरों के पक्षकार ।
सर्व प्रकार से वाद विवाद योग्य विषयों का निर्णय हो जाने के पश्चात् देवसूरि ने कहा-कुछ प्रयोग कीजिये।
दिगम्बराचार्य बोले-खी-भव में मुक्ति नहीं होती है । कारण अल्पसत्व स्त्रियां मोक्ष जाने लायक पुरुषार्थ कर नहीं सकती हैं।
देवसूरि-सभी पुरुष या सभी स्त्रियां एक सी नहीं होती हैं। कई स्त्रियां महासत्व वाली भी होती हैं। माता मरुदेवी मोक्ष गई, सती मदन रेखा आदि सत्व शील महिलाओं ने पुरुषों से भी विशेष कार्य करके बतलाया है । अतः उक्त हेतु स्त्री निर्वाण का बाधक नहीं हो सकता है।
इस प्रकार के लम्बे-चौड़े वाद विवादानन्तर मध्यस्थों ने स्वीकार कर लिया कि देवसूरि का कहना न्यायानुकूल एवं पूर्ण सत्य है। राजा की ओर से मन्जूर किया गया कि देवसूरि विवादमें विजयशील रहे अतः राजा प्रजा ने वाद्यन्त्रों के साथ देवसूरि का स्वागत करके अपने स्थान पर पहूँचाये ।
सिद्धहेमशब्दानु शासन के कर्ता कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेम चन्द्र सूरि फरमाते हैं कि यदि देवसूरि रूप सूर्य कुमुदचन्द्र रूप अंधकार को हटाने में समर्थ नहीं होते तो क्या श्वेताम्बर मुनि कमर पर कपड़ा धारण कर सकते ?
दिगम्बर वादी इस प्रकार हार खाकर वहां से चला गया। बाद में पाटण नरेश सिद्धराज ने आचार्य देवसूरि को तुष्टिदान देने लगा पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया । अन्त में उस द्रव्य से जिन मन्दिर बनाने का निश्चय हुआ। द्रव्य की अल्पता के कारण उसमें कुछ और द्रव्य मिलाकर मेरु की चूलिका के समान सुंदर मन्दिर बनवाया जिसके लिये स्वर्ण कलश एवं दण्ड ध्वजा सहित पीतल की मनोहर मूति तैय्यार करवाई । इस मन्दिर की प्रतिष्ठा देवसूरि आदि चार आचार्यों ने की । इसले शासन की पर्याप्त प्रभावना पाटण राज सभा में शास्त्रार्थ
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