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________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ आसवाल संवत् ८४०-८८० सूरिजी ने शोभन की भाग्य रेखा देख उसको उपदेश दिया शोभन ने सूरिजी के उपदेश को शिरोधार्य कर शिवपुरि पधारने की प्रार्थना की सूरिजीने शोभन की विनती स्वीकार करली और अपनी योग साधना समाप्त होने के पश्चात् बिहार कर क्रमशः शिवपुरी पधारे वहा के श्री संघ एवं मंत्री यशोदित्य एवं शोभन ने सूरिजी का सुन्दर स्वागत एवं नगर प्रवेश का बड़ा भारी महोत्सव किया, सूरिजी ने महामंगलीक एवं सारगर्भित देशनादी बाद सभा विसर्जन हुई । आज तो शिवपुरी के घर-घर में आनंद एवं हर्ष मनाया जा रहा है कारण गुरुमहाराज का पधारने के अलावा आनन्द ही क्या होता है। आचार्य श्री का व्याख्यान हमेशा होता था जिसमें संसार की असारता, लक्ष्मी की चंचलता, कुटम्बकी स्वार्थता, शरीरकी क्षण भंगुरता और आयुष्य की अस्थिरता पर अच्छा प्रकाश डाला जाता था आत्म कल्याण के लिये सब से बढ़िया साधन दीक्षा लेना अगर गृहस्थावास में रहकर कल्याण करने वालों के लिये यो तो पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य सामायिक प्रतिक्रमण उपवास व्रत पौषध वगैरह दैनिक किया है पर विशेषता साधन सामग्री के होते हुए न्यायोपार्जित द्रव्यसे त्रिलोक्यपूजनीय तीर्थङ्करदेवों का मन्दिर बनाना चतुर्विध संघ को तीर्थों की यात्रा करने को संघ निकालना और महा प्रभाविक पंचमाङ्ग भगवती जी सत्र का महोत्सव कर श्रीसंघ को सूत्र सुनाना इत्यादि पुन्यकार्य करके दीक्षा ले तो सोना और सुगन्ध वाली कहावत चरतार्थ हो जाती है इत्यादि सूरिजी ने बड़ाही हृदयग्राही उपदेश दिया जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा क्यों नहीं हलुकर्मी जीवों के लिये तो केवल निमित्त कारण की ही जरूरत है मंत्री यशोदित्य और सेठान मैना के मन्दिर की प्रतिष्टा करवानी ही थी उन्हेंने सोचा को सूरिजी का व्याख्यान खास अपने लिये ही हुआ है तव शोभन के दिल में त्यागकी तरंगें उठ रही थी उसने सोचा की अाजका व्याख्यान खास मेरे लिये ही है एक समय मंत्री यशोदित्य सूरिजी के पास आया और प्रार्थना की कि पूज्यवर । मन्दिर तैयार हो गया है कृपा कर इसके मुहूर्त का निर्णय कर एवं प्रतिष्ठा करवाकर हम लोगों को कृतार्थ बनावें । सूरिजी ने कहा यशोदित्य तु बड़ा ही भाग्यशाली है । मन्दिर बनाने का शास्त्रों में बड़ा भारी पुन्य बतलाया है कारण एक पुन्यवान के बनाये मन्दिर से अनेक भावुक अनेक वर्षों तक अपनी आत्माका कल्याण कर सकते हैं । जब मन्दिर तैयार हो गया है तो प्रतिष्ठा में बिलकुल बिलम्ब नहीं होना चाहिये । मुहूर्त के लिये मैं प्राजही निर्णय करदूगा। मंत्रश्वर तो वन्दन कर चलागया। पर बाद में शोभन आया सूरिजी को वन्दन कर अर्ज की कि पूज्यवर ! आपने व्याख्यान में फरमाया वह सोलह आना सत्य है मेरा विचार निश्चय हो गया है कि मैं अ.पके चरणबिन्द में दीक्ष्य लूगा । सूरिजी ने कहां शोभन मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री मिलने का यही सार है पूर्व जमाना में बड़े बड़े चक्रवर्तियोंने राजऋद्धि पर लात मार कर भगवती दीक्षा की शरण ली तब ही जाकर उनका उद्वार हुआ था यदि तुम्हारी भावना है तो विलम्ब नहीं करना । शोभन ने गुरु महाराज के वचन को 'तथाऽस्तु' कहकर अपने घर पर आया और अपने मातापिता को स्वष्टशब्दों में कह दिया कि मेरी इच्छा सूरिजी के पास दीक्षा लेने की है अतः प्रतिष्ठा के साथ मेरी दीक्ष भी हो जानी चाहिये । पुत्र के वचन सुनते ही माता पिता को मूर्छा आगइ और वे भान भुलकर भूमिपर गिर पड़े। जब जल वायु का प्रयोग किया तो वे रोते हुए गद-गद शब्दों से कहने लगे कि बेटा ! आज तो ऐसे शब्द निकाले है पर आईन्दा से हमारे जीते हुए कभी ऐसे शब्द न निकालना कारण हम ऐसे शब्द कानों में भी सुनना नहीं चाहते है। बेटा तु मेरे सबसे बड़ा पुत्र है तेरे विवाह के लिए बड़ी उम्मेद है कइ साहूसरिजी का व्याख्यान और शोभन का घेराग्य ] ८५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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